Monday, September 28, 2009

पत्रकारिता को खिलवाड़ मत बनाओ

जंग और प्यार में सब जायज है यह साबित कर दिया इस बार बंगाल पुलिस ने... बंगाल पुलिस की कारगुजारी आजकल सुर्खियों में है ... एक नक्सली नेता की गिरफ्तारी हो चुकी है और पुलिस इसे अपनी बड़ी सफलता मान कर अपनी पीठ थपथपा रही है। जाहिर है जिस एक शख्स ने लालगढ़ में हफ्तों राज्य की पुलिस को और देश की प्रशासनिक व्यवस्था को चुनौती दी हो उसकी गिरफ्तारी पर खुश होना लाजमी है... लेकिन सवाल उठता है कि जिस तरीके से पत्रकारिता को मोहरा बनाकर इस कारनामे को अंजाम दिया गया है वो ठीक है....और उपर से मीडियाघरानों की चुप्पी, बड़े पत्रकार होने का दावा करने वालों की खामोशी आखिर किस तरफ इशारा करती है।
छत्रधर महतो और बंगाल पुलिस के इस नाटक पर कुछ लिखूं उससे पहले मैं बता देना चाहता हूं कि मैं मौजूदा हालात में नक्सलवाद का समर्थक नहीं हूं लेकिन अपने पाठकों को ये भी साफ करता चलूं इन नक्सलियों के बीच हमने एक बार नहीं ... कई बार हफ्तों दिन गुजारा है..... इनके साथ जंगलों की खाक छानी है .... जंगलों में जानवरों और नक्सलियों के बीच सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा की है.... इसलिये मैं अपने अल्पज्ञान से इनको काफी करीब से देखा है और इनकी बुराइयों पर जमकर लिखा भी है। पत्रकारिता से इतर बिहार के कुछ जिलों में नक्सलवाद को पनपते हमने काफी करीब से देखा है जाना है, समानता की इनकी बातें हमें अपील करती रही है लेकिन बेवजह हत्याओँ को मैं विरोधी रहा हूं। महीनों इनके साथ बिताने के बाद हमें लगा कानू सान्याल और चारू मजूमदार का मिशन रास्ते में भटक गया है.... जहां शराब और लड़की के सिवा कुछ नहीं बचा और एक दौरे से आने के बाद मैंने लिखा कि ये विस्फोट करते हैं माओ के नाम पर, अवैध वसूली करते हैं लेनिन के नाम पर और हत्याएं करते हैं मार्क्स के नाम पर बावजूद इसके इनमें संभावनाएं हैं और सरकारी नीतियों के लचीलेपन की वजह से यह देश के लिए बाहरी आतंकवाद से बड़ा खतरा है। लेकिन यहां जरा गौर से समझने की बात है नक्सलवाद एक विचार है और विचार से छेड़छाड़ खतरनाक हो गया है... लेकिन जिस विचार को लेकर छत्रधर महतो ने लड़ाई शुरु की उसपर सरकार को गौर करने की जरुरत थी।
हम लौटते हैं अपने मुद्दे पर नहीं तो यह एक ऐसा विषय है जिसपर काफी कुछ लिखा जा सकता है। मुद्दा यह कि जिस तरीके से पुलिस ने पत्रकार का सहारा लिया क्या वो तरीका ठीक है। यहां कई बाते हैं..... मैं सबसे पहले उन पत्रकारों को कठघरे में खड़ा करता हूं जिनके बारे में कहा जा रहा है कि विदेशी एजेंसी के पत्रकार बने पुलिसवालों से महतो की मीटिंग तय कराई। क्या ये जानबूझकर था, इसपर मेरा ये मानना है कि ऐसा संभव नहीं है क्योंकि स्थानीय स्तर का काई पत्रकार ऐसा जोखिम नहीं ले सकता क्योंकि वो इतना जो जानता है कि अपनी पंचायत लगाकर कान काटने, उंगली काटने या फिर कई दिन उल्टा लटकाने के फैसले करने वाले ये लोग गद्दारी को कभी माफ नहीं करेंगे... हां लेकिन उस पत्रकार की एक गलती जरुर है कि उसने चंद पैसों के लालच में बिना ज्यादा जांच पड़ताल किये इन नकली एजेँसी के पत्रकारों पर भरोसा कर लिया और उनका ऐसा करना भी कई सवाल खड़े करता है... यहां भी बात समानता की आती है कि जिस स्ट्रिंगर की खबरों के सहारे न्यूज चैनल या राष्ट्रीय अखबार बड़े-बड़े खेल कर रहे हैं उन्हें चंद पैसों के लिये क्या करना पड़ता है मतलब साफ है कि इस पेशे में भी समानता नहीं है और अगर समानता की वकालत करता छत्रधर महतो अपनी लड़ाई लड़ रहा है तो क्या बुरा कर रहा है। अगर वो स्थानीय पत्रकार संपन्न होता तो उसे ऐसे काम करने की जरुरत नहीं पड़ती और फिर भी करता तो उसे ठोक बजाकर करता। दूसरी बात इन पुलिस वालों की .. आप सोचिए अगर किसी खबर का सच जानने के लिए अगर आप पुलिस की वर्दी पहन लें और बकायदा रिवॉल्वर लगाकर कहीं पहुंच जाएं.... तो क्या हमारे देश का कानून हमें ऐसा करने की इजाजत देगा, कतई नहीं... तो फिर एक दूसरे पेशे को हथियार के रुप में आजमाने के लिये पुलिसवाले दोषी क्यों नहीं है। दशकों से पत्रकार वहां पहुंचते रहे हैं जहां पुलिस-प्रशासन का जाना दूभर रहा है और वो सिर्फ इसलिये कि इस पेशे पर तमाम बुराईयों के बावजूद हर तबका भरोसा करता रहा है। ऐसे में नकली पत्रकार बनकर ऐसा करना न सिर्फ पत्रकारिता के साथ धोखा है बल्कि समाज के साथ भी सौतेला व्यवहार है क्योंकि ऐसी घटनाएं बार-बार दुहराई जाएंगी.... और फिर समाज के उस तबके का विश्वास हमसे उठेगा जो सामने नहीं आना चाहता लेकिन पत्रकार उनकी बातें मुख्यधारा तक पहुंचाते हैं। इसके दूरगामी परिणाम बहुत ही भयानक होंगे क्योंकि जब समाज का कोई भी एक या उससे अधिक हिस्सा मुख्यधारा से कटेगा और उसके संवाद भी स्थापित नहीं होगा तो जाहिर है विवाद होगा क्योंकि – जहां संवाद नहीं है वहीं विवाद शुरु होता है। और फिर न तो किसी छत्रधर महतो को हम, आप या पुलिसवाले जान पाएँगे और न हीं ऐसी गिरफ्तारी हो सकेगी। कुल मिलाकर बंगाल पुलिस का ये कदम उस आतंकवादी से ज्यादा बेहतर नहीं है जिसने पत्रकार के वेश में वीडियो कैमरे में बम लगाकर अफगानिस्तान लोकप्रिय नेता अहमद शाह मसूद की हत्या कर दी थी। और इन सबसे ज्यादा चिंताजनक बात यह है कि इस मसले पर कोई कुछ बोल नहीं रहा.... ये खामोशी पत्रकारिता के लिए और खासकर खोजी पत्रकारिता के लिए जहां सूत्र काफी मायने रखते हैं ... बेहद खतरनाक है।

5 comments:

  1. सर..बेहतरीन..आजकल आपको लिखते हुए देख रहा हूं तो संतुष्टि मिलती है। लेकिन देश की मुख्यधारा की मीडिया सरकार से कितनी आतंकित है कि उसने महतो कि गिरफ्तारी और सरकार के इस छद्म पर कोई सवाल नहीं उठाया-भला हो ब्लाग का कि इस पर लिखा भी जा रहा है। जब से माओवादियों को प्रतिबंधित घोषित किया गया है मीडिया उसके बारे में कुछ भी-भले ही वह मानवीय क्यों न हो-लिखने से बचता रहा है। उसे लगता है कि सरकार कहीं उसी की नकेल न कस दे। कई लोग इस मामले की बेवकूफाना हद तक तहलका से तुलना करते देखे गए हैं-वो भूल जाते हैं कि तहलका ने एक संस्थागत भ्रष्टाचार को उजागर करने का काम किया था जो देश के टैक्सपेयर्स का पैसा हजम कर रहा था। जबकि महतो की गिरफ्तारी और माओवाद सरकार की समाजिक-आर्थिक नीतियों की विफलता है, जनता के टैक्स के लूट का मामला नहीं। पत्रकारिता पर वैसे भी कई सवाल उठाए जाते रहे हैं लेकिन आम जनता अभी भी कमोवेश पत्रकारों पर भरोसा करती है। उसे लगता है कि नेता-अफसर-ठेकेदार के नेक्सस को अगर कोई उजागर करने में लगा है तो वो पत्रकार ही हैं-इसीलिए शायद इसे लोकतंत्र का चौथा खंभा भी कहा गया। मुझे लगता है कि मुख्यधारा के मीडिया की ये चुप्पी बहुत ही खतरनाक है, कहीं ऐसा न हो कि आगे पत्रकारिता की विश्वसनीयता शून्य स्तर तक पहुंच जाए। ये वक्त है कि हम आवाज उठाएं, हमारा सामूहिक हित दांव पर लगा है। उम्मीद है, आगे आप इस विषय पर लगातार लिखते रहेंगे।

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  2. Sir I m agree with u.. I m also thinking the same.. U put a right question infront of media. Sir I always appreciate ur approch for real journalism.I think u forget me bt I can't..ur working style has left a great impact on me.. Rachna from JURY

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  3. बंगाल पुलिस ने मीडिया के नाम पर विश्वासघात किया
    आनलाइन हस्ताक्षर द्वारा विरोध अवश्य करें

    विष्णु राजगढ़िया
    आपके आलेख् से सहमत हूं। इसीलिए विरोध दर्ज कराने की प्रक्रिया में आर्यावर्त के पाठकों को भी शामिल करने के लिए यह आग्रह भेज रहा हूं।

    पश्चिम बंगाल की सीआइडी पुलिस ने मीडिया के नाम पर विश्वासघात किया है। लालगढ़ आंदोलन के चर्चित नेता छत्रधर महतो को पकड़ने के लिए पुलिस ने पत्रकार का वेश बनाकर 26 सितंबर को ऐसा किया।
    यह मीडिया के प्रति लोगों के भरोसे की हत्या है। यह मीडिया की स्वायत्तता का अतिक्रमण है। यह बेहद शर्मनाक, आपत्तिजनक एवं अक्षम्य अपराध है। इसका पुरजोर विरोध होना चाहिए। इस संबंध में तत्काल एक स्पष्ट कानून बनना चाहिए।
    कृपया अपना विरोध दर्ज कराने के लिए यहां क्लिक करके प्रधानमंत्री के नाम पत्र पर आनलाइन हस्ताक्षर करें
    http://www.petitiononline.com/wbmisuse/petition.html

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  4. anuranjan ji kis media ki bat kar rahe hai. nakali patrakar ban kar chhatrdhar mahto ko pakarne ka khel me patrakarita ki badnami bhale hi mkam ho, lekin mere pas darjano praman hai jisme bare patrakaro ne paise lekar samaj virodhi kam kiye hai. nakali patrakar to nakli hai lekin asli jab nakli se badtar kukarm kare to kya kaha jaye. aur kin logo se aap nyaye mang rahe hai. jo log sirf apni naukari bachane ki patrakarita kar rahe hai oh patrakarita ko kya denge. inki safalta isi me hai ki chahe jo bhi ho jaye kam per date rahna hai. aap apna behter kam kare . yehi apeksha hai. akhilesh akhil

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  5. समाज की नब्ज को पकड़ पाना अब मुश्किल है...खुद पत्रकारिता ने तमाम ऐसे कम्यूनिकेशन गैप पैदा कर दिए हैं...जो उसके लिए घातक होने जा रहा है...छत्रधर महतो को पकड़ने के लिए पुलिस के हथकंडों पर चुप मीडिया अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मार रही है...

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