Tuesday, January 26, 2010
डाउन मार्केट हिंदी पत्रकार !
ये कुंठा है, ये सच है या फिर कोई पीड़ा। 25 जनवरी को दिल्ली के इंडिया इटरनेशनल सेंटर में एक गोष्ठी का आयोजन हुआ, विषय था Can Rural Reporting Be Sexy. यहां हमें सेक्सी के शब्दार्थ पर जाने की बजाए उसका भावार्थ समझने की जरुरत है। और उस दर्द को समझने की जरुरत है जिसकी वजह से इस विषय पर संगोष्ठी का आयोजन हुआ। आयोजन में देश के बड़े-बड़े पत्रकार, समाजसेवी और यहां तक कि केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री भी शरीक हुए। ग्रामीण पत्रकारिता से जुड़े मुद्दे पर मंत्री का शरीक होना एक अच्छा शगुन है लेकिन इस गोष्ठी के बाद हमारे मन में दो सवाल पैदा हुए.एक गोष्ठी पर जिसे कमोबेश नरेगा और आरटीआई के इर्द-गिर्द सीमित कर दिया गया, और दूसरा यह कि इस देश के बड़े अँग्रेजी पत्रकार न जाने किस चश्मे से देश को देखते हैं, गांवों की जनता को देखते हैं और वो भी तब जब उनमें से कई खुद भी गांव से आते हैं या फिर आने का दावा करते हैं। इस गोष्ठी में अंग्रेजी पत्रिका आउटलुक के प्रधान संपादक विनोद मेहता और टाइम्स ऑफ इंडिया के संपादक अरिंदम सेनगुप्ता मौजूद थे। दोनों देश के बड़े काबिल मैनेजर पत्रकार हैं। दोनों ने अपने प्रोडक्ट को उंचाइयां दी है। दोनों बाज़ार को समझते हैं। लेकिन एक पीड़ा है, एक दर्द है जो उसी संगोष्ठी में मौजूद आईबीएन 7 के मैनेजिंग एडिटर आशुतोष की बातों से साफ नज़र आई। मेहता और सेनगुप्ता ने साफ तौर पर कहा कि आज का संपादक मालिकों के इशारे पर थिरकता है, मैनेजरों से गलबहियां करता है क्योंकि उसे प्रोडक्ट बेचना है, और तो और सेनगुप्ता ने कहा क्योंकि हमारा पाठक शहरी है इसलिए हमें गांवो की रिपोर्ट ज्यादा नहीं लुभाती। एक हद तक यह सच भी है लेकिन इससे बड़ा सच है कि हम जो पाठकों या दर्शकों को परोसते हैं उन्हें उसी से संतोष करना पड़ता है। दरअसल जनता के पास साधन नहीं है कि वो अपने हिसाब से अखबार छापे या फिर चैनल चलाए लेकिन जैसे ही उसके आस-पास की, उसके मन की बात की जाती है वो उसे अपना समझता है या फिर जो उसे परोसा जा रहा है उसी में बेहतर विकल्प की तलाश में रहता है। तभी तो आज भाषाई पत्रकारिता उफान पर है। अखबार ज़िले के पेज बना रहे हैं, राज्यों में कई-कई सेटेलाइट चैनल खुल रहे हैं। लेकिन दिल्ली में बैठे ये पत्रकार मैनेजर दिल्ली की पत्रकारिता को ही मेनस्ट्रीम पत्रकारिता मान बैठे हैं। आशुतोष ने एक और बात कही कि हमारा गांव और छोटे शहर समृद्ध हो रहे हैं..एक हद तक यह सच भी है औऱ हमारा बाजार भी अब वही लोग हैं लेकिन उस तरफ किसी का ध्यान नहीं जा रहा और जिसका जा रहा है वो उसका फायदा उठा रहे हैं। भाषाई पत्रकार खासकर हिंदी पट्टी से आनेवालों को दिल्ली में कैसा डाउन मार्केट समझा जाता है यह दर्द भी आशुतोष की बातों में झलका। इन सबके साथ मैं इन अंग्रेजी के बड़े पत्रकारों से कुछ कहना चाहूंगा जिन्हें शायद ग्रामीण मुद्दों की रिपोर्टिंग स्तरीय नहीं लगती, कि वो पाठकों को कैसा अखबार और कैसी पत्रिका देना चाहते हैं जिसमें कुछ कंटेंट हो या फिर सिर्फ मसाला। फिर मसाला परोसने के लिए बहाना ढूंढते हैं कि पब्लिक यहीं पढ़ना चाहती है। एक उदाहरण देता हूं मैं जब छोटा था तब मेरे घर (बिहार के एक छोटे से गांव में) पटना से छपने वाला एक अंग्रेजी अखबार The Indian Nation आता था। तब शायद बिहार में वो टाइम्स ऑफ इंडिया और हिंदुस्तान टाइम्स से ज्यादा बिकता था। पटना में गंगा पर गांधी सेतु नहीं था इसलिए कोई भी अखबार शाम में मिलता था। उस अखबार को मेरे दादाजी हर रोज़ शाम को गांव के कई लोगों को पढ़कर हिंदी में सुनाते थे। जब थोड़ा बड़ा हुआ तो देखा कि तकरीबन 10-12 कॉपी मेरे गांव में आने लगी। लेकिन जानते हैं अब क्या हो रहा है। अभी पिछले महीने मैं अपने गांव गया था और दिल्ली की लत की वजह से टाइम्स ऑफ इंडिया या हिंदुस्तान टाइम्स लाने के लिए किसी को कहा तो उसे बगल के गांव जाना पड़ा, औऱ वहां भी जो शख्स अँग्रेजी अखबार खरीदता है वो दिल्ली से विस्थापित हुआ एक पत्रकार है। मेरे गांव में अब कोई अँग्रेगी अखबार नहीं पढ़ता इसलिए नहीं कि लोग पढ़ना नहीं जानते बल्कि इसलिए कि वो उनकी खबरें नहीं छापता। जहां अब पहले से ज्यादा पक्की इमारते हैं.... पहले से ज्यादा गाड़ियां हैं वहां अंग्रेजी अखबार नहीं बिकता क्योंकि वो उनके बारे में नहीं लिखता और आपको बता दूं कि ये वो हिंदी पट्टी है जहां हिंदी के अखबार 5 रुपये के बिकते हैं और वो भी लाखों में। रही बात विषय की क्या छापें वो तो हमें तय करना होगा कि हमें मूड्स सेक्स सर्वे गांवो तक पहुंचाना है या फिर उनके मूड की ख़बरें छापनी है। इन अँग्रेजी पत्रकारों की बातों को सुनकर कई बार सिहरन पैदा होती है और लगता है बचपन में जो पढ़ाया गया कि भारत किसानों का देश है, गांवों का देश है वो वाकई गुरुजी के डंडे के भय से बना हुआ था, सच कुछ और ही है। हकीकत ये है कि हम जिन्हें डाउन मार्केट समझ रहे हैं उनकी नज़र में हम खुद डाउन मार्केट हैं तभी तो हमें वहां कोई नहीं पढ़ता। इसलिए इस कांपलेक्स से बाहर आकर हमें गांवों से जुड़े मसलों पर सोचना होगा क्योंकि अब भी जनता हमें चौथा खंभा समझती है और यह विश्वास बना रहे इसी में हम सबकी भलाई है।
Friday, January 22, 2010
अपना मर्सिया पढ़ रहे टीवी चैनल
आर्यावर्त के पाठकों को नए साल की शुभकामनाएं। www.mediasarkar.com को लांच करने में व्यस्त था इसलिए काफी समय से कुछ लिख नहीं पाया. अब आप हमें यहां लगातार पाएंगे साथ ही www.mediasarkar.com पर भी आप हमसे रु-ब-रु हो सकते हैं।
टीआरपी की अंधी दौड़ में तो अब हद ही हो गई है पिछले दिनों यूटीवी के बिंदास चैनल पर एक अश्लील कार्यक्रम शुरु हुआ है इमोशनल अत्याचार। इस कार्यक्रम में बेवफाई का स्टिंग ऑपरेशन किया जाता है। लड़के-लड़कियां अपने साथी की लायलिटी टेस्ट करवाते हैं। चैनल खुफिया कैमरे के जरिए इन सारी घटनाओं को अंजाम देता है। पता नहीं आप महसूस कर पा रहे हैं कि नहीं लेकिन ये ट्रेंड बहुत ही खतरनाक है एक तो रिएलिटी शो के बहाने अब कैमरा हमारे घर में घुस गया है, पर्दे के इस पार आ गया है और वो सब हो रहा है जो एक सभ्य समाज को कतई शोभा नहीं देता। सच का सामना करने के ऐसे तरीके अपनाए जाते हैं कि सालों से बसा बसाया घर बिखर जाता है, पिछले जन्म का राज जानने के बहाने अंध-विश्वास को बढ़ावा दिया जा रहा है, देश भर से प्रतिभा ढूंढने के बहाने कम उम्र की लड़कियों को उनके माता पिता के सामने टू पीस बिकनी में नचवाया जाता है, कई कई ब्वाय फ्रैंड रखने वाली और लिव-इन रिलेशन में रह चुकी ऱाखी सावंत का स्वयंवर कराया जाता है और अब तलाकशुदा राहुल महाजन स्वयंवधु ढूंढने निकले हैं । जो कैमरा खबरों औऱ समस्याओँ को दिखाने तक सीमित था, समाज का चेहरा था हमें जानकारियां देने का काम करता था, हमें दुनिया की हकीकत से रु-ब-रु कराता था अब हमारे बेडरूम तक जा पहुंचा है। साफ है बंदर के हाथ में उस्तरा थमा दिया गया है नतीजा कैसा होगा बताने की जरुरत नहीं। अभी कुछ दिन पहले ही मतंग सिंह ने महिलाओँ के सशक्तिकरण के लिये खोले गए अपने चैनल पर रात बारह बजे से एक कार्यक्रम शुरु किया है – रात अभी बाकी है, बिल्कुल इंडिया टीवी पर दो-तीन साल पहले दिखाए जाने वाले कार्यक्रम इंडिया बोले की तरह। पहले ही एपिसोड में दर्शकों के ऐसे सवाल कि मेहमान औऱ महिला एँकर दोनों असहज नजर आए। इतना ही नहीं इसी ग्रुप का दूसरा चैनल जो पूर्वांचली समाज का होने का दावा करता है उस पर भी एक ऐसा ही कार्यक्रम स्थानीय़ भाषा में शुरु किया गया है और शुरु करने वालों को दलील कि यहां के लोगों को मुख्यधारा में जोड़ने की कोशिश की जा रही है आखिर ये टीवी चैनल वाले चाहते क्या हैं ? एक तो बेसिर-पैर के कार्यक्रम और उसपर तुर्रा ये कि दर्शक जो चाहता है वही हम दिखाते हैं। सवा सौ करोड़ की आबादी में दस हजार से भी कम दर्शक तय करते हैं कि पूरा देश क्या देखना चाहता है ? ये एक ऐसा ट्रेंड है जिसपर लगाम हमें जल्द ही लगानी होगी। कैसे हम दर्शकों का स्वस्थ मनोरंजन करें इस पर हम कभी विस्तार से चर्चा करेंगे फिलहाल हम बात करते हैं बिंदास के इमोशनल अत्याचार की। इस कार्यक्रम पर कुछ भी कहूं उससे पहले में ये बता देना चाहता हूं कि खुफिया कैमरे का इससे घटिया, वाहियात और फिजूल इस्तेमाल पहले कभी नहीं देखा... उमा खुराना कांड में भी नहीं ... शक्ति कपूर के मामले में भी नहीं। अभी तक स्टिंग ऑपरेशन के इतिहास में ये दो मामले मेरी नजर में काले धब्बे थे। एक में जहां एक औरत को गलत फंसाया गया औऱ उसकी अस्मिता तार- तार हुई और दूसरे में मेनका बन विश्वामित्र नहीं बल्कि एक आम इंसान की तपस्या भंग करने की कोशिश की गई। स्टिंग ऑपरेशन किसी खुलासे का जरिया हो सकता है यह एक्सपोजे का माध्यम है, इसे कभी भी किसी को फंसाने का जरिया नहीं बनना चाहिए। इतनी सी बात खुफिया कैमरे का इस्तेमाल करने वाले ज्यादातर लोग अभी तक ठीक से समझ नहीं पाये हैं। इन सबको कम से कम अनिरुद्ध बहल की एक क्लास लेनी चाहिए शायद दिमाग पर से थोड़ा पर्दा उठे लेकिन लगता है इन्हें तो इसकी जरुरत ही नहीं क्योंकि ये तो भंडाफोड़ करने नहीं बल्कि किसी को फंसाने, किसी की निजी जिंदगी में तांक-झांक करने आए हैं। इमोशनल अत्याचार में इस्तेमाल किए जा रहे तथाकथित खुफिया कैमरे पर ही हमारा पहला विरोध है और दूसरा जो इसका सबसे बुरा पहलू है जिसे जानकर आप ये सोचने को विवश हो जाएँगे कि आखिर किन पर भरोसा करें और किन पर नहीं। एक प्रेमिका एक प्रेमी का स्टिंग ऑपरेशन करवाती है, स्टिंग ऑपरेशन में उस लड़के की दूसरी प्रेमिका नजर आती है फिर दोनों लड़कियां मिलकर उस लड़के की जासूसी करवाते हैं और फिर दोनों साथ बैठकर उस लड़के को किसी तीसरी लड़की के साथ बैठकर फ्लर्ट करते देखते हैं वो तीसरी लड़की रिएलिटी शो की टीम का हिस्सा है। शो की लड़की जिस तरीके से उस लड़के को सरे-बाज़ार फ्लर्ट करती है और लड़के को फंसाने के वो हरसंभव प्रयास करती है जो सभ्य समाज में शोभा नहीं देता। इसे न्यूज चैनलों ने कई दिनों तक खूब भुनाया। इस प्रोग्राम को देखते ही कुछ शक होता है, रिएलिटी शोज पर पहले भी सवाल उठते रहे हैं कि ये मैनेज्ड होते हैं लेकिन इमोशनल अत्याचार को देखने के बाद आपको यकीन हो जाएगा कि इनकी क्या हकीकत है, और इसे सच साबित कर दिखाया न्यूज चैनल न्यूज 24 ने। इस चैनल ने स्टूडियो में बिठाकर दोनों लड़कियों से बात की। इस बातचीत के दौरान ये साफ हो गया कि ये सब मैनेज्ड था। लड़कियां जिस तरीके से आपस में बात कर रही थीं उससे ये लग रहा था जैसे दोनों की काफी पुरानी जान पहचान हो इतना ही नहीं जब उन दोनों को आपस में ये बोला कि जवाब संभलकर देना कि इन्हें शक न हो तो सब साफ हो गया। इन दोनों लड़कियों में से एक एमटीवी के कार्यक्रम स्पिल्टिसविला में भी प्रतियोगी रह चुकी थी। मतलब पैसे के लिए कुछ भी हो रहा है। लड़कियां किसी को भी अपना प्रेमी बना रही हैं... लड़के पैसे के लिए कैमरे के लिए सामने लड़कियों से मार खा रहे हैं, फ्लर्ट कर रहे हैं। चैनल अपने टीआरपी के लिए कुछ भी कर रहे हैं इसे देखकर तो यही लगता है कि अब वो दिन दूर नहीं जब टीवी चैनल्स अपनी टीआरपी के लिये किसी की जान भी ले लेंगे और वो भी रिएलिटी शो के बहाने। लेकिन ये टीवी चैनल वाले इस बात को नहीं समझ रहे हैं कि विश्वास खोकर वो अपना ही मर्सिया पढ़ रहे हैं।
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