Friday, November 6, 2009

यूं जाना गुरुजी का




राम नाम सत्य है .... इस बोल के साथ जब दिन के तकरीबन एक बजे पार्थिव शरीर को कंधा दे रहा था तो पूरे शरीर में एक सिहरन सी हुई और इस कठोर सत्य पर विश्वास करना पड़ा कि अब कभी गुरुजी के दर्शन नहीं होंगे। पल भर में पिछला पांच साल घूम गया, जी पिछले पांच साल में ही मैं व्यक्तिगत तौर पर उनके थोड़ा करीब आ पाया था और वो भी बड़ी हिम्मत जुटाकर जबसे मैं जनसत्ता अपार्टमेंट में उनके करीब रहने लगा था। हां एक लेखक और पाठक का रिश्ता काफी पुराना था। सच तो यही है कि उनकी लेखनी पढ़कर ही लिखने का शौक जगा और उस उम्र में ऐसा लगता था कि बस हमने पत्रकारिता शुरु की नहीं कि समाज में क्रांति आ जाएगी, लेकिन जल्द ही नौकरी करने लगा और दुनिया को बताने लगा कि पत्रकार हो गया हूं। यही सच है आज जब मीडिया के बड़े बड़े दिग्गज सिर्फ नौकरी कर रहे हैं प्रभाष जी आखिरी सांस तक पत्रकारिता करते रहे। सच तो ये है कि हिंदी पत्रकारिता का आखिरी स्तंभ ढह गया। इस दुनिया से आखिरी पत्रकार चला गया और हम लोग सिर्फ नौकरी करेंगे। अब शायद ही कोई पत्रकार बम-बम करेगा। प्रभाष जी पत्रकारिता से देश का भविष्य संवारना चाहते थे और हम सब पत्रकारिता से अपना भविष्य संवारना चाहते हैं। इसी बुनियादी फर्क का नाम है प्रभाष जोशी। हम बड़े खुशनसीब हैं कि हम उस दौर में हैं जब हमने प्रभाष जी को बड़े करीब से देखा । शुरु में उनका लिखा पढ़ता तो मिलने की इच्छा होती लेकिन धारदार लेखनी देखकर सोचता शायद बड़े कड़क होंगे तो फिर मन करता रहने दो फिर कभी। ग्रेजुएशन करने दिल्ली आया तो धीरे- धीरे यदा कदा किसी संगोष्ठी, किसी समारोह में मिलने लगा, थोड़ी- बहुत बात भी कर लेता लेकिन भीड़ से बच बचाकर। और सोचता अपना लेखक-पाठक वाला रिश्ता ही सबसे अच्छा है। ऐसे ही काफी समय बीत गया। लेकिन हमें तो इतिहास का गवाह बनना था चाहे वो थोड़े समय के लिये ही क्यों न हो। अचानक वैशाली का अपना घर बेचकर मैं वसुंधरा जनसत्ता में रहने आ गया। उस समय गुरुजी यहां कभी-कभार आते थे, धीरे-धीरे लगभग हर सप्ताहांत आने लगे और फिर दिल्ली में होते तो ज्यादातर यहीं रहते। उनके आने का कार्यक्रम हमें कभी कभार ही मालूम होता फिर भी अक्सर कभी सीढ़ियों पर कभी लिफ्ट में मिल जाते कभी उनकी गाड़ी खड़ी देख रामबाबू से उनका कार्यक्रम जानने की कोशिश करता। उधर दूसरी तरफ मेरी पत्नी और बेटा गुरुमाता से स्नेह पाते रहे। बचपन से जिस प्रभाष जी को जानते रहे उनका ऐसा सानिध्य मिलेगा हमने कल्पना नहीं की थी। कोलकाता प्रेसींडेंसी कॉलेज में किसी समारोह के दौरान मेरी पत्नी पहली बार उनसे मिली थी। एक लेखक के तौर पर वो हम दोनों के प्रिय थे और यही वजह है कि जब हमें करीब आने का मौका मिला तो हमने उसे अपने हाथ से नहीं जाने दिया। टेलीविजन की नौकरी से समयाभाव के कारण मैं थोड़ा नुकसान में रहा और उनका सानिध्य मेरे बेटे और पत्नी को ज्यादा मिला। मेरे बेटे से पूछते बड़े होकर क्या बनोगे.... वो कुछ भी कहता तो कहते क्यूं क्रिकेट अच्छा नहीं लगता... तेंदुलकर बनना नहीं चाहते। प्रभाष जी सचिन के इतने बड़े फैन थे.....अगर प्रभाष जी से पहले तेंदुलकर का दौर होता तो निश्चय ही वो खुद बड़ा होकर तेंदुलकर बनना चाहते। गुरुजी ने अपनी इनिंग भी तेंदुलकर की तरह खेली, शानदार, जानदार... सभी गोलंदाजों की बखिया उधेड़ते हुए। हैदराबाद में सचिन ने जिस तरह पारी खेली उससे पंद्रह साल पुराने सचिन की याद आ गई। ठीक उसी तरह प्रभाष जी ने अभी चंद दिनों पहले कागद कारे में चेताया था- खबरों के बेचने के काले धंधे को रोकने के पुण्य कार्य में फच्चर मत फंसाओं... टिकोगे नहीं। सच मानिए ये सिर्फ गुरुजी ही लिख सकते थे।