Saturday, August 29, 2009
रोको मत अपनी कलम अमन के गीत लिखो
रोको मत अपनी कलम अमन के गीत लिखो।
नभ की गंगा का पानी कुछ गंदला सा है
मौसम पहले से कुछ बदला-बदला सा है
बदरी सी चारों ओर क्षितिज पर छायी है
मानो धरती की आग उभरकर आयी है
लिखते आए सदियों से गीत समर्पण के
इस कोलाहल में नवजीवन के गीत लिखो
समिधा सुलगी, श्रृंगार सुलगने वाला है,
रोको मत अपनी कलम अमन के गीत लिखो।
छिटका दो चिनगारी सागर के पानी पर
झलरा दो मोती किस्मत की पेशानी पर
पेशानी पर लिख दो इतिहास जमाने का
कुछ असर जिंदगी पर हो नए तराने का
दुनियावालों को नए तराने गाने दो
तुम नए छंद में नए सृजन के गीत लिखो
समिधा सुलगी, श्रृंगार सुलगने वाला है,
रोको मत अपनी कलम अमन के गीत लिखो।
अंगड़ाई लेने को दुनिया अकुलाती है
उपर देखो धरती की आह धुंआती है
इसे मजलूमों की आह न समझो, आंधी है
इस आंधी के पीछे लेनिन है, गांधी है
कुछ नए सितारे आसमान पर चमकेंगे
इस उथल-पुथल में परिवर्तन के गीत लिखो
समिधा सुलगी, श्रृंगार सुलगने वाला है,
रोको मत अपनी कलम अमन के गीत लिखो।
Tuesday, August 25, 2009
मेरे जीवन के साथ बड़ी मजबूरी है ....
मैं वीरानों में गीत सुमन के लिखता हूं।
मैं लिखता हूं इसलिए कि मधुबन शरमाए,
मैं लिखता हूं इसलिए कि जीवन दुहराए,
लिखता जाता उत्थान पतन जग-जीवन का
मुझको न तनिक परवाह पपीहा अकुलाए।
धरती के पन्नों पर आंसू की स्याही से-
मैं सुनसानों में गीत नयन के लिखता हूं
मेरे जीवन के साथ बड़ी मजबूरी है,
मैं वीरानों में गीत सुमन के लिखता हूं।
मेरे गीतों का प्राण सुबह का तारा है
गंगा का पानी है झेलम की धारा है
ज्वारों से लिखता गीत समय के धारों पर
गीतों से अम्बर को दिन-रात पुकारा है
गीली मिट्टी से बने दीप की पांती से
मैं बलिदानों में गीत नमन के लिखता हूं
मेरे जीवन के साथ बड़ी मजबूरी है,
मैं वीरानों में गीत सुमन के लिखता हूं।
मेरे गीतों की कड़ी जवानी बन जाए
चिंतन की कोमल घड़ी कहानी बन जाए
हर शब्द-शब्द के साथ कल्पना भी उतरे
हर चरण-चरण जीवन का दानी बन जाए।
चरणों की आकुल-आहट से युग के पथ पर
मैं अभियानों में गीत गमन के लिखता हूं,
मेरे जीवन के साथ बड़ी मजबूरी है,
मैं वीरानों में गीत सुमन के लिखता हूं।
Monday, August 17, 2009
ये सब पब्लिसिटी स्टंट है
Tuesday, August 4, 2009
रात को ओढ़ लूँ...
रात में खो चलूँ
रौशनी उतार कर
आज खुद से मिलूँ
प्रज्वलित हो चलूँ
आज खुद ही जलूँ
सूर्य बन कर उगूँ
आभा बन कर जगूँ
भस्म गर हो गई
बीज बन कर जियुँ
अंकुरित हो सकूँ
जिन्दगी बन सकूँ
स्वर के लय पर…
शब्द के आशय में...
स्नेह के अहसास में….
सोच के पँख पर….
एक तरंग बन सकूँ…
एक सदिश की तरह
चल सकूँ...
छू सकूँ…
आज मैं...
काश मैं...
मैं बन सकूँ
Monday, August 3, 2009
जयंती की जय हो
हम जिस जयंती की जय-जयकार कर रहे हैं उसे आपलोग नहीं जानते होंगे। लेकिन हमें यकीन है कि जब आप जानेंगे तो आप भी हमारे सुर में सुर मिलाएंगे। उपर वाला भी क्या क्या रंग दिखाता है ? हमारी आपकी सबकी हकीकत जानने के लिये अलग अलग तरीके अपनाता है। चलिए आपको उलझाते नहीं हैं बता देते हैं ... जयंती महज 3 महीने की है और उसके दिल में छेद है....... उसके माता पिता इस हैसियत में नहीं है कि उसका इलाज करा सकें.... जयंती ऐसी कि आप देखें तो आपका दिल भर आए..... जी कलेजे से चिपकाने को हो, हर संभव प्रयास करने के बाद भी उनकी उम्मीद टूटती जा रही है लेकिन उपरवाला निर्दयी नहीं है..... भूले भटके जयंती के पिता की मुलाकात इंडिय़ा न्यूज चैनल के उर्जावान रिपार्टर विजयलक्ष्मी से हो जाती है और फिर धीरे-धीरे सबकुछ बदलने लगता है .. वो रिपोर्टर इस बच्ची की मदद हर कीमत पर करने की ठान लेती है.... एक रिपोर्ट फाइल करती है और चैनल कई घंटो तक इस बच्ची के माता पिता को स्टूडियो बिठाकर लोगों से इसकी मदद की गुहार लगाता है..... जयंती के माता -पिता की उम्मीदें जगती हैं.... रिपोर्टर देश के सबसे बड़े अस्पताल एम्स में अपने संबंधों से बातचीत करती है और वहां के डॉक्टर हर संभव मदद और रियायत की बात भी करते हैं लेकिन अब भी जयंती को सत्तर हजार रुपये की जरुरत है... न्यूज चैनल पर जिस दिन खबर दिखाई गई थी उस दिन कई लोगों ने मदद करने का आश्वासन दिया लेकिन अभी तक कोई सामने नहीं आया है .... जयंती के माता पिता की उम्मीदें फिर टूटने लगती है क्योंकि डॉक्टर जल्द से जल्द ऑपरेशन की बात कर रहे हैं......। इसी बीच एक 'भोर' नाम की एक संस्था जयंती को जीवनदान देने आती है । इस ट्रस्ट के लोगों ने भी चैनल पर खबर देखी है औऱ उसकी मदद करने की सोची है.... भोर ट्रस्ट के जरिए एम्स को पच्चीस - पच्चीस के दो चेक दिए जाते हैं यानी कुल पचास हजार और फिर जयंती को एम्स में भर्ती कर लिया जाता है ।
आज जयंती आइसीयू से बाहर आ गई है... उसका ऑपरेशन सफल रहा है ... डॉक्टर भी खुश हैं..... माता-पिता की कल्पना तो आप खुद कर सकते हैं... साथ ही भोर ट्रस्ट के कुछ अधिकारी फिर अस्पताल आए हैं उनके चेहरे पर भी संतोष है और सबसे ज्यादा खुश है वो रिपोर्टर जिसकी मेहनत से इस नन्हीं जान की जान बची है .... आज इस भागमभाग में भी कुछ लोगों को दूसरों की चिंता है ..... इन सबको साधुवाद ।
Sunday, August 2, 2009
फर्क बस इतना था कि चीरहरण हस्तिनापुर में नहीं पाटलिपुत्र में हुआ । फर्क बस इतना था कि पांडव कौरवों के साथ थे। राहगीर सभासद की भूमिका में थे और मौन थे। न कोई शकुनी था और न कुछ दांव पर लगा था ? न कौरवों का अपमान हुआ था न कोई न कोई द्रौपदी थी और न कोई दुर्योधन, फिर भी पाटलिपुत्र की सड़कों पर चीरहरण हुआ। स्टेट कैपिटल से कैपिटल स्टेट तक बहस जारी है। चीरहरण पर सियासी महाभारत छिड़ गया
संस्कार, संस्कृति , सामाजिक मर्यादा और नैतिकता से भरे बयानों का सिलसिला जारी है । पीड़ित लड़की के बयान दर्ज किए जा रहे हैं। कड़ी कार्रवाई होगी। दोषियों को बख्शा नहीं जायेगा।सरकारी भोंपू सभ्य़ और सुसंस्कृत नागरिकों को लगातार भरोसा दिला रहा है। पुलिस हरकत में है और अदालत अपराधियों को सजा सुनाने के लिए तत्पर। न्याय होगा।
कुछ पकड़े जायेंगे, कुछ बच निकलेंगे। कुछ को सजा मिलेगी, कुछ बाइज्जत बरी कर दिये जायेंगे, लेकिन जूही के जिस्म से कपड़ा जिस तरह नोचा गया, सरेआम उसे जिस तरह खसोटा गया, वो सिलसिला कभी रूकेगा? सड़क पर उसके कपड़े एक बार नोचे गए। पुलिसिया जांच और पूछताछ के दौरान भी यही सब दोहराया जाएगा। जूही को बार बार नोचा जाएगा, क्योंकि होटल के कमरे से निकलकर सड़क पर निर्वस्त्र जूही अब देश की हर गली, गांव और कस्बे में पहुंच गई है। चाय और पान की दुकानों पर बहस इस बात पर नहीं हो रही है...न्याय कब होगा? दोषियों को सजा कब सुनाई जाएगी और कब मुख्यमंत्री इस बात की घोषणा करेंगे कि चीरहरण करने वाले सलाखों के पीछे हैं। अब नहीं होगा किसी का सरेआम चीरहरण। बहस इस बात पर हो रही है कि जूही सिंदूर बेचती थी या शरीर। किसी राकेश के कहने पर वो किसी के साथ होटल के कमरे में क्यों पहुंच गई। और किस तरह से वो शोहदों के बीच फंस गई। उसके कुछ तो किया होगा, कुछ तो उसका भी कसूर होगा। भला एक हाथ से ताली कैसे बज सकती है ? इस तरह के एक नहीं बल्कि कई सवाल हैं जो उन लोगों के मन को भी मथ रहे हैं, जो सामाजिक नैतिकता और मर्यादा के नाम पर उन तमाम राकेश सिंहों को हजार हजार लानतें भेज रहे हैं। लेकिन यकीन मानिए ये वही लोग हैं जो रात के अंधेरे में ऐसी खुशबुओं के जिस्म पर लार टपकाते हैं। इनमें से बहुत सारे लोग तमाशबीन की तरह चीरहरण देखते रहे। पाटलीपुत्र की सड़क पर एक हाथ नहीं उठा बचाने को। बिहार की राजधानी में चादर का एक टुकड़ा नहीं मिला जूही की तार तार आबरू को ढकने को। पाटलीपुत्र में वस्त्र की नहीं ईमान की कमी है। चारों तरफ से नुचती हुई जूही को देखकर तमाशबीनों की आंखों में खोट आ गया। इसलिए उन तमाशबीनों की शर्म से गर्दन नहीं झुकी और न उसे बचाने को कोई हाथ उठा। तमाशबीनों की आंखों में जूही की जवानी चुभ गई। इसलिए उसके अधनंगे शरीर को ढकने के लिए वस्त्र का कोई टुकड़ा नहीं मिला, और जिनको इस सबसे कोई सरोकार नहीं था उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ा। आखिर किसी बात से किसी को क्यों कोई फर्क नहीं पड़ता? लोग क्यों ये सब एक तमाशबीन की तरह देखते रह गए? क्या पाटलीपुत्र की सड़क पर जूही के साथ जो कुछ हुआ वो कोई नौटंकी का खेल था? लेकिन हकीकत यही है कि पाटलीपुत्र में अब किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता और वैसे भी वो तो पतुरिया है, जो अपने जिस्म का कारोबार करती है। और जो होता है वो अच्छे के लिए हीं होता है। उसकी किस्मत में जो बदा था वही उसके साथ हुआ। इस लफड़े में फंसना किसी शरीफ का काम नहीं है क्योंकि....
सबको फिक्र है
कि बीच में कैसे भी न फंसे उसकी चौकी
कि उस पर ही जीते जायेंगे सारे गढ
सारी तलवारें वहीं चमकेंगी
पुलिस के बूटों का वहीं होगा गश्त
वहीं पर लूटे जायेंगे राहगीर
बीच में कोई नहीं फंसना
चाहता है
हर कोई चाहता है किनारे से
देखना, नौटंकी का खेल
कहां से शुरु करूं, कैसे शुरु करूं समझ में नहीं आता... तुम्हारे बारे में सब अपनी व्यथा शब्दों में उकेर रहे हैं, लेकिन तुम्हारे बारे में लिखना और ये सोचकर लिखना कि तुम अब नहीं हो चाहकर भी नहीं हो पा रहा है फिर भी मैं चाहता हूं कि अब जब तुम नहीं हो तुम्हारे बारे में कुछ लोग मेरे जरिए भी जाने....या यूं कहूं कि लोग तुम्हारे जरिए मुझे भी जानें.... मेरे अभिन्न भी ये जाने कि तुम मेरे लिए क्या थे.... लोग ये जाने कि मुझे कितना आश्चर्य हुआ था जब तुमने ये बताया था कि तुम मुझसे उम्र में सालों बड़े हो क्योंकि तुम्हें देखकर तो ऐसा अहसास बिल्कुल नहीं होता था। और यही वजह है कि में अपने से छोटा समझ तुम्हें - तुम कहने लगा था और फिर ये आदत बनी रह गई... चाहकर भी तुम, आप में तब्दील नहीं हो पाया और होती भी कैसे – रिश्तों में तुम की गर्मी- आप में कहां। याद है शैलेंद्र तुमने मुझे कैसे लगे लगाया था जब मैंने कहा था कि मैं एक शैलेंद्र सिंह को जानता हूं जो जिंदगी को जानने का दावा करते हैं... तुमने पूछा कैसे तो मेरा जवाब था उनकी किताब के जरिए, तुमने तड़ से सवाल दागा मिले हो कभी.. मैंने बोला नहीं लेकिन मैं तुम्हें सुनाता हूं उनकी चार पंक्तियां-
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जिंदगी... निर्दोष तो कल की तरह मैं आज भी हूं
इस अधर से निकालो तो संभवत कल भी रहूंगा
जानता हूं जिंदगी...निर्दोष होना सबसे बड़ा दोष है
पर मैं क्या करूं मेरी तो नियति ही यही है
फिर मैंने बोला था किसी को जानने के लिए उसकी लेखनी को जानिये सब जान जाएंगे तुमने मुझे गले लगाया तब मुझे एहसास हुआ कि पिछले छ महीने से हम इतने करीब क्यों आए- तुम्हारी “जानता हूं जिंदगी” इसकी एक कड़ी थी। शैलेंद्र की पहली किताब – जानता हूं जिंदगी- दरियागंज के संडे मार्केट से मैंने 1996 में खरीदी थी, लेकिन भाई से पहली मुलाकात उसके तीन साल बाद हुई। सच कहूं शैलेंद्र तुम जिंदगी के बारे में कुछ नहीं जानते थे सिर्फ जानने का दावा करते थे, अगर जानते होते तो जाने के लिए इतनी जल्दी नहीं करते- जैसे- जैसे जिम्मेदारी बढ़ रही थी वैसे वैसे तुम नाबालिग हो रहे थे.। जब कभी हम साथ होते तुम खिलंदड़पन से बाज नहीं आते... भाभी की मौजूदगी में किसी अनजान से भी फ्लर्ट करना नहीं भूलते... और ये सब मुझे जब अच्छा नहीं लगता तो तुम्हारा एक ही डॉयलॉग – गीता पढ़ो--- वैसे भी हमारी-तुम्हारी मुलाकात के पहले छ महीने तक मुझे कम पढ़ा लिखा टीवी का पत्रकार समझते रहे--- धीरे धीरे जब मैं तुमसे कविता की भाषा में बात करता तो तुम मुझे अपने करीब पाते..... तुम बेचैन रहते थे.... कम समय में बहुत कुछ करना चाहते थे.. और यही बेचैनी मुझमें देख तुम्हें थोड़ी संतुष्टि भी मिलती। आज मैं ये कह सकता हूं कि तुम्हें जानने का दावा कोई चाहे कितना भी करे लेकिन जान नहीं पाया..। अभी तो एक हफ्ता भी नहीं बीता था..जब तुमने ये कहा था बड़े न्यूज डायरेक्टर हो गये हो, मिलने की फुर्सत नहीं है फोन करने का टाइम नहीं है ..... सुधर जाओ नहीं तो बहुत मारुंगा..... मैंने कहा कुछ तो इज्जत करो यार- मेरा बेटा चार साल का हो गया है... मुझे वो इज्जत नहीं चाहिए.... मैं मार खाने को तैयार हूं क्या तुम आओगे, नहीं न तुम झूठे निकले.... पिछले कुछ महीनों से सिर्फ ऐसी ही बात करने के लिए मुझे फोन करते थे ...... क्योंकि शायद ये बातें तुम सिर्फ मुझे ही कह पाते थे क्योंकि मैं तुम्हें इस हद तक बर्दाश्त करता था। तुम मुझपे इतना हक भी जताते थे लेकिन मेरी सुनते बहुत कम थे.....। इसी संडे को मिलने का वादा किया था तुमने.....लेकिन इस बार भी मेरी नहीं सुनी । तुम सुनना ही नहीं चाहते थे । तुमने सिर्फ अपनी करने की ठानी थी। ये जिद किसी को अच्छी नहीं लगी शैलेंद्र – न तुम्हारे दोस्तों को न ही तुम्हारे विरोधियों को । अपनी हरकतों से हमारी रात काली करते और सुबह चाय पर हमारा गुस्सा भी झेलते और बड़े सहज होकर जब तुम ये कहते दोबारा ऐसा नहीं होगा तो मैं मन ही मन सोचता था कब तुमसे बदला लूं ऐसे ही सारी रात परेशान करके।
मैं जब आजतक में नौकरी करता था तो साउथ दिल्ली में रहता था और भविष्य में भी उधर ही रहने की सोचता था लेकिन तुम मुझे अपने पास लेकर आए। तुम्हारी ही जिजिविषा थी कि मैंने 24 साल की उम्र में घर खरीदा...... मुझे लगता है कि पिछले जन्म में तुमपर मेरा कुछ उधार था जो इस जन्म में न सिर्फ तुमने सूद समेत चुकाया बल्कि कुछ नया कर्ज चढ़ा गए, जो शायद ही मैं उतार पाउं। न तो तुम हमें अपने करीब लाते... न मेरी आँखों से “वो” (वो की कहानी फिर कभी) पर्दा हटाते जिसकी आड़ में मैं अपने पिछले कई सालों से जिए जा रहा था और न मैं जिन्दगी की इस राह पर चलता...जिसमें मेरे साथ कदम मिलाकर चलने वाली पत्नी और बहुत प्यार करने वाला बेटा मिला...। मेरी जिद और मेरी कुछ गलतियों से मुझे पांच साल बाद ही अपना घर बेचना पड़ा तुम भी काफी दुखी हुए लेकिन हमेशा हौसला देते रहे...। आज जब मैं फिर अपने घर में रह रहा हूं तुम साथ छोड़ गये। तुम्हें याद है शैलेंद्र जब मुझे...मुझे(मैं अपने आपको दुनिया का सबसे निडर आदमी मानता हूं) अपने घर में नींद नहीं आती थी.... अकेले डर लगता था...मुझे जबरदस्ती अपने घर में सुलाते ... क्या-क्या कहूं शैलेंद्र और किससे कहूं, तुम्हें तो कोई फर्क पड़ता नहीं उपर से मजे ले रहे होगे... आपलोगों को बताऊं अभी शैलेंद्र क्या कहता…सब गदहे हैं और तुम घोड़ा हो...सुधर जाओ...
क्या क्या लिखूं... कहां खत्म करूं समझ नहीं आता, शैलेंद्र ... छोड़ो यार ..... ।
भाई शैलेंद्र की याद में उन्हीं की कविताओं के जरिए हमारे एक वरिष्ठ सहयोगी अगस्त्य अरुणाचल ने अपने दिल की बात कही है, Italic पंक्तियां शैलेंन्द्र की है और उस कविता को अपनी व्यथा से बढ़ाया है अगस्त्य जी ने
जिंदगी..ये कैसा मुकाम है
ये कहां आकर तुम ठहर गई हो
क्या आगे बढ़ना सचमुच ही दुष्कर है
तो पीछे ही लौट पड़ो न
क्योंकि मुझे याद है..
पिछले कुछ पलों में राहत मिली थी
हां जिंदगी.. पीछे ही लौट पड़ो न
काश कि ज़िंदगी लौट पड़ती...
काश कि वक्त का पहिया पीछे चल देता...
एक बार... सिर्फ एक बार....
फिर तुम इस कविता को आगे बढ़ाते..
जिंदगी से कुछ और बतियाते...
संजीदगी से धर्म का मर्म बताते..
इस मध्य में तो दिखती नहीं कोई मुक्ति
वो तो बुद्ध ही थे जो चुन लिए मध्यपथ
मुझसे तो कुछ भी होता नहीं वैसा
जिंदगी... निर्दोष तो कल की तरह मैं आज भी हूं
क्यों अपना लिया इतना दर्द...
हां... मां-पापा का उठ गया था साया..
लेकिन दीदी ने तो तुम्हें प्यार दिया था
दर्द बन गई लेखनी की स्याही
फिर - 'जानता हूं जिंदगी'..
तुम्हारी कविता संग्रह आई
फिर भी तुम्हें कहां था चैन
लेखनी में स्याही थी बाकी
'कुछ छूट गया है”- तुमने लिख डाली
तब जहां ने तुमको जाना
दिल के दर्द को कुछ पहचाना
निदा फ़ाज़ली को कहना पड़ा था
इतनी कम उम्र में इतना दर्द..
हमने अपने जीवन में नहीं देखा
हां..जिंदगी को जीना तुमने सिखलाया
यारों को यारी तुमने समझाया
अब तुम कहां चले गए हो
सबकी संगत छोड़ गए हो...
देखो जिंदगी तुम्हें करती है याद
दोहराती है तुम्हारी दरख्वास्त
हां जिंदगी बोलो न...
ये कौन सा मुकाम है
मुझे यहां से कहीं ले चलो न
सिर्फ एक एहसान कर दो
मेरी संवेदना मुझे लौटा दो
एक लेखक होने की इतनी सजा है
तुम्हारी कसम...
अब कभी मैं लिखूंगा कुछ भी नहीं
मां को चिट्ठी भी नहीं...
पापा को पत्र भी नहीं
दीदी को हां..हां...
उसे भी नहीं
पर मेरी भावना मेरी संवेदना मुझे लौटा दो
तुम्हारी लेखनी में स्याही है बाकी
देखो .. बेटा तकता है राह तुम्हारी
बिटिया का कुछ तो ख्याल करो
एक बार वापस लौट कर आ जाओ
लेकिन तुम तो कुछ सुनते ही नहीं
यार तो यार, दीदी की भी नहीं..
इतनी दूर तुम चले गए हो
दर्द का भंवर छोड़ गए हो
अब भी जिंदगी करती है याद तुम्हें
हम सबका आखिरी सलाम तुम्हें।
अगस्त्य अरुणाचल
एसोसिएट एक्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर
इंडिया न्यूज
तब लगता है ठगा गया हूँ मैं जीवन के लेन देन में,
जब अयोग्य जुगनू सूरज के सिंहासन पर दिखता है,
जब खोटा पत्थर का टुकड़ा कनक कणी सा बिकता है,
जब शब्दों का मोल आँकने वाला मापक बहरा है,
जब असत्य परपंच अनर्गल संभाषण ही टिकता है,
मिलता है सम्मान उसी संभाषण को श्लोकों सा,
तब लगता है ठगा गया हूँ मैं जीवन के लेन देन में,
मैंने पहचाना फूलों को गंधों के व्याकरणों से,
और बाग को पहचाना है माली के आचरणों से,
बगिया की शोभा है रंग बिरंगो फूलों की क्यारी,
एक रंग के फूलों को जब अलग निकाला जाता है,
सिर्फ उन्हें जब राजकुमारों जैसे पाला जाता है,
तब लगता है ठगा गया हूँ मैं जीवन के लेन देन में,
मेरे नियम ग़लत थे जो मैं मानवता का हामी था,
सत्य बोलने को प्रस्तुत था भोलापन अनुगामी था,
अपने साथी के सिर पर मैं पाँव नहीं धर सकता था,
लाभ हानि की खातिर झूठी बात नहीं कर सकता था,
आज खेल में जब शकुनि के पासे रंग दिखाते हैं,
तब लगता है ठगा गया हूँ मैं जीवन के लेन देन में,
जब पुस्तक की शोभा भर होती हों समता की बातें,
झूम नशे में जब मेहनत का मोल लगाती हों रातें,
आदर्शों के मूल धंसे हों येन केन और प्रकारेन में,
तब लगता है ठगा गया हूँ मैं जीवन के लेन देन में.
मंच पर अंधेरा
अचानक रंगमंच का पुरोधा हमें खाली हाथ छोड़ गया। भोपाल में 8 जून को सूरज के उगने के पहले ही रंगमंच पर अँधेरा छा गया... और चरणदास चोर का कांस्टेबल अँधेरे में हमेशा के लिये गुम हो गया....जिसे देखने के लिये उमड़ी भीड़ को देख किसी रैली का अहसास होता था.... मिट्टी की वो गाड़ी मिट्टी में मिल गई जिसे हबीब अहमद खान ने बनाया था .... जी हां तनवीर साहब का असली नाम यही था... तनवीर के नाम से तो वो अखबारों में लिखा करते थे जिसे बाद में उन्होंने अपने नाम के साथ जोड़ लिया। और एक वक्त आया जब हबीब तनवीर थियेटर के पर्याय बन गये। तनवीर ने थियेटर की दुनिया में उस वक्त कदम रखा था जब थिएटर के अंत की चर्चा जोरों पर थी. लेकिन उनकी जिद ने थियेटर को फिर अमर कर दिया।
1923 में रायपुर में जन्मे हबीब तनवीर एक नाटककार ही नहीं बल्कि बेहतर कवि, अभिनेता और निर्देशक भी थे...लेकिन इस जिद्दी इंसान का मन न तो पोलैंड में रमा था और न ही मुंबई में जमा, कुछ दिनों तक ऑल इंडिया रेडियो में नौकरी भी की लेकिन भारतीय जन नाट्य मंच से जुड़ने के बाद वे रंगमंच के होकर रह गए। छत्तीसगढ़ के लोक कलाकार और वहां का लोक जीवन उनके अंदर रचा बसा था। इसी लोक जीवन के रंग बिरंगे रुप को वे जीवन भर मंच पर रचते रहे। आगरा बाजार हो या चरणदास चोर, मिट्टी की गाड़ी हो या शतरंज के मोहरे, बहादुर कलारिन हो या पोंगा पंडित हर नाटक में लोक जीवन के रंग हबीब ने इस अँदाज में भरे कि परंपरागत भारतीय थियेटर की पूरी तस्वीर ही बदल गई। तनवीर लोक जीवन ही नहीं लोक कलाकार की अंतरराष्ट्रीय पहचान बन गए। सम्मान और पुरस्कार की चकाचौंध में हबीब कभी शामिल नहीं हुए .... दरअसल हबीब को पुरस्कार उस अवार्ड को सम्मान है.... 1982 में चरणदास चोर को एडिनबर्ग में जब फ्रिंग फर्स्ट अवार्ड से नवाजा गया तब वहां स्टेज पर ये बातें किसी ने कही थी। तनवीर साहब को 1983 में पद्म श्री और 2002 में पद्म विभूषण मिला। 1996 में उन्हें संगीत नाटक अकादमी से भी सम्मानित किया गया। हबीब तनवीर 1972 से 1978 तक राज्यसभा के मनोनीत सदस्य भी रहे। तनवीर साहब एक ऐसा मंच सिरजना चाहते थे जिसका पर्दा कभी गिरे नहीं....लेकिन लंबी बीमारी ने भारतीय रंगमंच के उस पर्दे को गिरा दिया जिसके उस पार रह गए हबीब तनवीर। तनवीर साहब को मैं ज्यादा जानने का दावा तो नहीं कर सकता लेकिन मैं जितना जानता था ये जरूर कह सकता हूं कि जितनी शिद्दत से वो लोगों को ईद-मुबारक देते थे उतने ही मस्त होकर होली मनाते थे... खुश होकर दीवाली पर दिए जलाते थे । एक मुस्लिम परिवार में पैदा होने के बाद भी उन्होंने हिंदू लड़की मोनिका मिश्रा से शादी की और फिर जीवन रंगमंच और मोनिका जी के बीच ही बीत गया। दरअसल उन्होंने कभी अपने-आपको धर्म के बंधन में बंधने नहीं दिया। 94-95 की बात है हबीब साहब एनएसडी में अपनी टीम के साथ चरणदास चोर की प्रस्तुति के लिए आए थे। उस वक्त 70-72 साल की उनकी उम्र रही होगी.. और जिस कदर वो कांस्टेबल के किरदार में मंच पर दौड़ लगाते थे उसे देखने वाला देखता रह जाता... उन्हीं दिनों श्रीराम सेंटर में हमारे निर्देशन में मनोज मित्र के नाटक बगिया बांछाराम की – का मंचन हो रहा था, मैंने उस नाटक के मुख्य किरदार हबीब साहब जैसी फुर्ती लाने को कहा, हमारा प्रयोग काफी सराहा गया और फिर हमारे काफी आग्रह पर हबीब साहब उस नाटक का एक शो देखने पहुंचे। थिएटर के इस पुरोधा से हमारा साबका पहली बार पड़ा था। कई साल बाद जब रामगोपाल बजाज ने एनएसडी में भारतीय रंग महोत्सव की शुरुआत की तब हबीब साहब अपने नाटकों के साथ वहां धूम मचाते नजर आए...तब तक मैं भी पूरी तरह टेलीविजन पत्रकारिता में आ चुका था। फिर तो कई मौकों पर उनसे मुलाकात हुई और बेबाक बातें भी। जैसे जैसे तनवीर साहब की उम्र बढ़ती गई.. उनका दिल्ली आना कम होता गया। दो साल पहले जब वो एक थिएटर फेस्टिवल में ज्यूरी के तौर पर आए थे तो उन्हें इस बात की खुशी थी कि उस फेस्टिवल को स्पांसर मिल गया था। थिएटर को स्पांसर मिलना अपने आप में एक इतिहास कायम होना था लेकिन दरअसल वो उस महान शख्स को सलाम था जिसकी जिद ने ये संभव कर दिखाया। हबीब साहब जैसों का ही जज्बा था कि थियेटर आज भी जिंदा है। इस महान शख्सियत के लिए दो शब्द-
आने वाली दुनिया मानव को पूजेगी
इस मिट्टी से कुछ मूरतें गढ़ने दो।