Wednesday, July 29, 2009

कोई फर्क नहीं पड़ता !

फर्क बस इतना था कि चीरहरण हस्तिनापुर में नहीं पाटलिपुत्र में हुआ । फर्क बस इतना था कि पांडव कौरवों के साथ थे। राहगीर सभासद की भूमिका में थे और मौन थे। न कोई शकुनी था और न कुछ दांव पर लगा था ? न कौरवों का अपमान हुआ था न कोई न कोई द्रौपदी थी और न कोई दुर्योधन, फिर भी पाटलिपुत्र की सड़कों पर चीरहरण हुआ। स्टेट कैपिटल से कैपिटल स्टेट तक बहस जारी है। चीरहरण पर सियासी महाभारत छिड़ गया

संस्कार, संस्कृति , सामाजिक मर्यादा और नैतिकता से भरे बयानों का सिलसिला जारी है । पीड़ित लड़की के बयान दर्ज किए जा रहे हैं। कड़ी कार्रवाई होगी। दोषियों को बख्शा नहीं जायेगा।सरकारी भोंपू सभ्य़ और सुसंस्कृत नागरिकों को लगातार भरोसा दिला रहा है। पुलिस हरकत में है और अदालत अपराधियों को सजा सुनाने के लिए तत्पर। न्याय होगा।
कुछ पकड़े जायेंगे, कुछ बच निकलेंगे। कुछ को सजा मिलेगी, कुछ बाइज्जत बरी कर दिये जायेंगे, लेकिन जूही के जिस्म से कपड़ा जिस तरह नोचा गया, सरेआम उसे जिस तरह खसोटा गया, वो सिलसिला कभी रूकेगा? सड़क पर उसके कपड़े एक बार नोचे गए। पुलिसिया जांच और पूछताछ के दौरान भी यही सब दोहराया जाएगा। जूही को बार बार नोचा जाएगा, क्योंकि होटल के कमरे से निकलकर सड़क पर निर्वस्त्र जूही अब देश की हर गली, गांव और कस्बे में पहुंच गई है। चाय और पान की दुकानों पर बहस इस बात पर नहीं हो रही है...न्याय कब होगा? दोषियों को सजा कब सुनाई जाएगी और कब मुख्यमंत्री इस बात की घोषणा करेंगे कि चीरहरण करने वाले सलाखों के पीछे हैं। अब नहीं होगा किसी का सरेआम चीरहरण। बहस इस बात पर हो रही है कि जूही सिंदूर बेचती थी या शरीर। किसी राकेश के कहने पर वो किसी के साथ होटल के कमरे में क्यों पहुंच गई। और किस तरह से वो शोहदों के बीच फंस गई। उसके कुछ तो किया होगा, कुछ तो उसका भी कसूर होगा। भला एक हाथ से ताली कैसे बज सकती है ? इस तरह के एक नहीं बल्कि कई सवाल हैं जो उन लोगों के मन को भी मथ रहे हैं, जो सामाजिक नैतिकता और मर्यादा के नाम पर उन तमाम राकेश सिंहों को हजार हजार लानतें भेज रहे हैं। लेकिन यकीन मानिए ये वही लोग हैं जो रात के अंधेरे में ऐसी खुशबुओं के जिस्म पर लार टपकाते हैं। इनमें से बहुत सारे लोग तमाशबीन की तरह चीरहरण देखते रहे। पाटलीपुत्र की सड़क पर एक हाथ नहीं उठा बचाने को। बिहार की राजधानी में चादर का एक टुकड़ा नहीं मिला जूही की तार तार आबरू को ढकने को। पाटलीपुत्र में वस्त्र की नहीं ईमान की कमी है। चारों तरफ से नुचती हुई जूही को देखकर तमाशबीनों की आंखों में खोट आ गया। इसलिए उन तमाशबीनों की शर्म से गर्दन नहीं झुकी और न उसे बचाने को कोई हाथ उठा। तमाशबीनों की आंखों में जूही की जवानी चुभ गई। इसलिए उसके अधनंगे शरीर को ढकने के लिए वस्त्र का कोई टुकड़ा नहीं मिला, और जिनको इस सबसे कोई सरोकार नहीं था उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ा। आखिर किसी बात से किसी को क्यों कोई फर्क नहीं पड़ता? लोग क्यों ये सब एक तमाशबीन की तरह देखते रह गए? क्या पाटलीपुत्र की सड़क पर जूही के साथ जो कुछ हुआ वो कोई नौटंकी का खेल था? लेकिन हकीकत यही है कि पाटलीपुत्र में अब किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता और वैसे भी वो तो पतुरिया है, जो अपने जिस्म का कारोबार करती है। और जो होता है वो अच्छे के लिए हीं होता है। उसकी किस्मत में जो बदा था वही उसके साथ हुआ। इस लफड़े में फंसना किसी शरीफ का काम नहीं है क्योंकि....

सबको फिक्र है
कि बीच में कैसे भी न फंसे उसकी चौकी
कि उस पर ही जीते जायेंगे सारे गढ
सारी तलवारें वहीं चमकेंगी
पुलिस के बूटों का वहीं होगा गश्त
वहीं पर लूटे जायेंगे राहगीर
बीच में कोई नहीं फंसना
चाहता है
हर कोई चाहता है किनारे से
देखना, नौटंकी का खेल

Tuesday, July 28, 2009

तब लगता है ठगा गया हूं मैं जीवन के लेन देन में

जब अयोग्य जुगनू सूरज के सिंहासन पर दिखता है
जब खोटा पत्थर का टुकड़ा कनक कणी सा बिकता है