Sunday, April 10, 2016

रवीश कुमार को बिल्कुल मत बख्शिए



रवीश कुमार को आजकल सोशल मीडिया पर बहुत गालियां दी जा रही हैं। ये वही सोशल मीडिया है जिसकी वजह से रवीश अपनी एक अलग पहचान बनाने में कामयाब हुए । आज देश के चंद नामी-िगरामी टीवी पत्रकारों में शुमार किए जाने वाले रवीश काफी दुखी भी हैँ। अपने उपर लगातार होने वाले हमले से क्षुब्ध होकर उन्होंने फेसबुक से दूरी बनाई और अब अपने प्राइम टाइम शो में गाली वाले पूरी घटना का जिक्र किया। दुखी नहीं काफी दुखी दिखे। दरअसल इन दिऩों गजब का ट्रेंड चला है जो आपकी पसंद की बात नहीं करे गैंग बनाकर उसके पीछे पड़ जाओ। अब ये बताइए कि यह कैसे संभव है कि कोई सार्वजनिक जीवन का व्यक्ति सबको खुश कर पाए। मैं तो कहता हूं कि आपलोग रवीश कुमार को बिल्कुल मत बख्शिए, खूब भला-बुरा कहिए , मैं गाली का समर्थन नहीं करता लेकिन अगर आपके संस्कार में हैं तो खूब गाली भी दीजिए। लेकिन इससे पहले अपने गिरेबां में एक बार थोड़ी देर के लिए ही सही झांककर देखिए। रवीश के समानांतर जो पत्रकार दिखते हैं उनको भी देखिए उनके काम और उनके कारनामे भी देखिए, देखिए कि उन्होंने या आपने जो अपने जीवन में किया है उससे देश का कितना भला हुआ है या फिर कितना भला होगा? जब रवीश सूट-बूट वाले टीवी पत्रकारों, एंकर्स के बारे में कहते हैं कि जिन-जिन जगहों पर रवीश गए हैं वहां उनको जाने में दशक बीत जाएं तो इसका मतलब यह नहीं कि वो देश-विदेश घूमने की बात करते हैं वो अपने ही देश के उन हिस्सों की बात करते हैं जहां जाना एक पत्रकार का फर्ज होता है लेकिन न तो आज उन खबरों से सरोकार दिखता है और न हीं लोगों की उसमें दिलचस्पी । कम से कम रवीश खुल कर कहते तो हैं कि वो वही करते हैं जो उनका जमीर कहता है लेकिन उनका क्या जिनका जमीर मर चुका है। जानते हैं जब आप अपने तर्कों में कमजोर पड़ जाते हैं , उनसे हार जाते हैं तो आप शार्ट कट तलाशते हैं और गाली-गलौज पर उतर जाते हैं। क्यूंकि उसमें तथ्यों पर कोई बात नहीं करनी होती। इस पूरे मामले को जरा ढंग से समझने की जरुरत है, मर्सिया पढ़ते टीवी न्यूज के दौर में सोशल मीडिया बंदर के हाथ उस्तरा की तरह है। किसी भी व्यक्ति की लानत-मलानत करनी हो तो यहां पर फौज छोड़ दीजिए, ये फौज न आगे देखती है न पीछे, न किसी घटना के तह तक जाती है बस भेड़ों की झुंड की तरह बहने लगती है। और आपको जरुर जानते होंगे कि देश का ज्यादातर हिस्सा न तो इस सोशल मीडिया की जद में आया है और न हीं  वहां की समस्या से उसका सरोकार है। बावजूद इसके आने वाले दिनों में यही भविष्य होने वाला है और अभी यह ऐसे दौर से गुजर रहा है जहां हमें सतर्क रहना है औऱ कई मामलों में बेपरवाह भी। अगर आप कुछ अच्छा करना चाहते हैं तो इसका इस्तेमाल कीजिए , सतर्क रहिए और अगर आपको गालियां पड़ रही हैं तो बेपरवाह हो जाइए… सच मानिए दूसरा कोई रास्ता नहीं। 

हम बात कर रहे थे रवीश कुमार की तो आप ये बताइए कि पिछले दो सालों में ऐसा क्या हो गया िक धीरे धीरे रवीश सोशल मीडिया के Blue eyed Boy से खलनायक में तब्दील हो गए। रवीश को भी जरा उसपर गौर करना चाहिए। बीजेपी की सरकार बनने के बाद मोदी विरोध की तेज चली आंधी में अच्छे कर्म भी धुल गए। जितना विरोध इस मौजूदा सरकार का हर मामले पर हो रहा है उतना आजाद हिंदुस्तान में किसी सरकार का नहीं हुआ , इमरजेंसी के बाद इंदिरा गांधी का भी नहीं। तो क्या मोदी गलत हैं.. क्या उनकी सरकार हर फैसले देश की जनता के खिलाफ कर रही है या फिर कुछ और बात है। रवीश कुमार के साथ किया जाने वाला गलत व्यवहार उतना ही गलत है जितना मोदी सरकार की हर नीतियों का विरोध। सरकार अगर गलत करती है तो उसका विरोध कीजिए लेकिन अगर कुछ अच्छा हो रहा है तो उसकी तारीफ भी होनी चाहिए। कन्हैया मामले में पटियाला हाउस की घटना ने एक गैर मौजूं व्यक्ति को खबरों के केंद्र में लाकर खड़ा कर दिया। पत्रकारों के साथ हुई बदसलूकी पर अगर टीवी स्क्रीन ब्लैक किया जा सकता है तो श्रीनगर में तिरंगा फहराने वालों पर लाठीचार्ज के बाद भी टीवी स्क्रीन ब्लैक किया जाना चाहिए। जब आप अपने जमीर की बात करते हैं तो निरपेक्ष नहीं हो सकते फिर आपको यह भी देखना होगा कि जिस व्यक्ति के संस्थान में आप नौकरी कर रहे हैं उसका जमीर क्या कहता है। जब आप अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दुहाई देते हैं तो आपको एक लकीर खींचनी होगी कि नीरा राडिया के साथ संबंधों के उजागर होने के वक्त बरखा दत्त के साथ आप खड़े हैं या कि नहीं। 


अन्ना के आंदोलन के वक्त सांप-बिच्छू से छुटकारा पाकर टेलीविजन न्यूज ने खबरों का रुख किया और कुछ साख बनाई, लेकिन जिस तरह से अरविंद केजरीवाल और उनके गैंग ने देश की जनता के साथ मजाक किया और टेलीविजन ने उस मजाक में उनका साथ देकर जनता के साथ धोखा किया एक बार मीडिया अपनी साख के लिए जद्दोजहद कर रहा है। हर कोई अपने सेट एजेंडा के साथ चल रहा है। निष्पक्ष का दावा ठोककर पत्रकार आजकल पक्षकार होते जा रहे हैं जबकि जरुरत जनपक्ष की पत्रकारिता की है। जमीर की आवाज सुनिए रवीश बाबू गालियों के मत डरिए। गालियां भी उसी को पड़ती है जिससे गलत लोगों को डर लगता है। तो दर्शक और पाठक लोग आप रवीश कुमार को बिल्कुल मत बख्शिए, रवीश बाबू आप गालियों से बिल्कुल मत डरिए। यह देश जमीर की आवाज सुनता है, आपकी कई खबरों से इत्तेफाक नहीं रखते होते हुए भी हम आपके साथ हैं क्यूंिक इस भेड़ की भीड़ में कम से कम आप नहीं हैं। 

Tuesday, April 5, 2016

आज मदहोश हूं मैं ः िबहार में शराब बंद

बिहार में आज से देशी-विदेशी सभी किस्म के शराब पर पाबंदी लगा दी गई। न तो अब शराब बेची जाएगी और न ही किसी होटल - रेस्तरां को लाइसेंस मिलेगा। कमाल का फैसला है, अगर आप देश के विकास में अपना योगदान देना चाहते हैं तो किसी भी हिस्से में होने वाले अच्छे काम को सराहा जाना चाहिए और किसी भी हिस्से में बुरे काम की निंदा की जानी चाहिए। वैसा बिल्कुल नहीं होना चाहिए जैसा आजकल भारत माता की जय वाले मामले में हो रहा है। बिहार को अगर पिछले पच्चीस सालों में देखें तो अगर कुछ अच्छे काम हुए हैं तो वो नीतीश कुमार के फैसले से ही हुए हैं। हालांकि नीतीश के सुशासन में शिक्षा और स्वास्थ्य अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है और सहयोगी दल के नेता-कार्यकर्ता फिर उसी रास्ते पर लौटते दिख रहे हैं जिनका विरोध कर नीतीश कुमार ने पहली बार सत्ता पाई थी। इन सबके बीच नीतीश कुमार और उनके कैबिनेट के इस फैसले की जितना सराहना की जाए कम है। शराब से होने वाली समस्याएं और बरबादियां को वही समझ सकता है जिसने उसे करीब से देखा हो। इस मामले में मेरे दो किस्म के अनुभव हैं। घर में, परिवार में कोई व्यक्ति इसका सेवक नहीं है लिहाजा व्यक्तिगत समस्याएं कभी नहीं हुईँ। गांव में जब था तब भी और शहर में आया तब भी। जबकि घर में किसी के सेवन नहीं करने के बावजूद शराब का दंश बड़े करीब से देखा। यहां नाम लेना उचित नहीं है लेकिन अपने गांव में और समाज में इसकी चंगुल में बरबाद होते परिवार देखा है। स्वभाव और संस्कार से ठीक ठाक लोगों को शराब के नशे में वो करते देखा है जिसकी कल्पना से सिहरन पैदा हो। मैं अब उन परिवारों के लिए थोड़ा सुखी हो सकता हूं, उनके बच्चों के भविष्य के लिए थोड़ा निश्चिंत भी। क्यूंकि अगर यह शराब नहीं बंद होती तो मैं जानता हूं कि वो अपने जनाजे से पहले अपने बच्चों के भविष्य का जनाजा निकाल चुके होंगे। लिहाजा नीतीश कैबिनेट के इस फैसले ने अगली पीढ़ी के लिए काफी सुकून दिया है। 

पिछले विधानसभा चुनाव में अपने दौर के सिलसिले में कई ऐसे गांव और बस्तियों में गया जहां की सबसे बड़ी समस्या ही शराब है। कुछ इलाकों में नई पीढ़ी के कुछ जागरूक किशोरों ने खुलेआम कहा कि "वोट उसी को जो शराब न दे किसी को"। जबकि हम सब जानते हैं कि चुनाव के दौरान मामला ठीक इसके उलट होता है। पैसे के साथ सबसे ज्यादा शराब बांटा जाता है। नीतीश कुमार का यह फैसला और वो भी पंचायत चुनाव के दौरान, बड़ा ही साहसिक फैसला है। हालांकि िबहार में पार्टियां पंचायत के चुनाव नहीं लड़तीं लेकिन फिर भी वोटर और कैंडिडेट्स तो विचारधाराओं के साथ बहते ही हैं। 


अभी अगले ही हफ्ते नीतीश कुमार की पार्टी के नए राष्ट्रीय अध्यक्ष का चुनाव हो जाएगा और अनुमानतः नीतीश कुमार के हाथ में ही पार्टी की बागडोर भी आ जाएगी।  ऐसे में बिहार में पूर्ण तौर पर शराब बंदी का फैसला निस्संदेह नीतीश कुमार के पक्ष में जाएगा। पिछले लोकसभा चुनाव से पहले जब जनता दल यू एनडीए से अलग हुई तो कई किस्म की चर्चाएं थी। एक मेरे जानकार ने कटाक्ष में कहा था कि नरेंद्र मोदी तो चुनाव प्रचार में बोलते हैं देश को गुजरात बना दूंगा, नीतीश कुमार क्या बोलेंगे .. देश को बिहार बना दूंगा। उनकी बात सोलह आने सच थी, और आज यह भी सच है कि बिहार भी आज ड्राइ स्टेट की कैटेगरी में जा खड़ा हुआ है। देश के चार राज्यों में एक। और देखिए न कितनी दिलचस्प बात है शराब के साथ …. शराब बनाने वाली कंपनी दिवालिया…. उसे कर्ज देने वाला बैंक खस्ताहाल…… पीने वाले लोग कंगाल…. आखिर यह पैसा जाता है कहां । आखिर में आज मदहोश हूं मैं। 

Wednesday, March 23, 2016

ये ट्वीट बहुत कुछ कहता है

Published on 14th March 2016 in Inext
क्या माना जाए लोकतंत्र के स्तंभ धीरे धीरे खोखले होते जा रहे हैं या फिर कुछ उम्मीद बाकी है। खासकर जब हम बात लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की करते हैं तो चिंता बढ़ने लगती है। पत्रकारिता का दिनोंदिन ह्रास हुआ है इसमें कोई शक नहीं है लेकिन जब बैंको के हजारों करोड़ का कर्ज लेकर फरार कोई शख्स मीडिया को धमकाए और बोले कि खामोश ..पोल खोल दूंगा तो चिंता और बढ़ जाती है। आज के दौर में जब हम मीडिया की बात करते हैं तो उसमें प्रिंट मीडिया हाशिए पर नजर आता है। सोशल मीडिया परिपक्वता से अभी काफी दूर है और टेलीविजन को तो जैसे शैशवकाल में ही पीलिया हो गया। पिछले कुछ समय का गौर करें तो टेलीविजन न्यूज ने क्या कमाल किया है देश में दिख रहा है। देश में आंदोलन की बयार से लेकर दिल्ली के वर्तमान मुख्यमंत्री तक मीडिया की देन हैं खासकर टेलीविजन मीिडया की। आजकल ही देखिए तीन खबरें पिछले तीस दिन से ज्याादा समय से स्क्रीन पर तैर रही हैं, और सारी एक निश्चित एजेंडे के साथ । चाहे वो कन्हैया हो, श्री श्री रविशंकर का संगीतनाद हो या फिर विजय माल्या। इन खबरों के अलावा टेलीविजन पर कुछ नहीं दिखता । और अब तो एक दूसरे चैनल वाले खुलेआम आपसी रिश्तेदारी - दुश्मनी भी निपटाने में जुटे हैँ। बात दिखती छोटी जरुर है लेकिन बहुत गंभीर है। हमें तो लगता है िक लोकतंत्र के किसी भी समस्या से ज्यादा गंभीर , अति गंभीर। शायद जीडीपी के गिरते स्तर से भी ज्यादा गंभीर है देश में मीडिया का गिरता स्तर। जल्दी, सबसे पहले, सबसे आगे और सबसे खनकदार दिखाने की होड़ में खबरों और देश दोनों से समझौता हो रहा है। गौर से देखिए कन्हैया मामले पर वीडियो पर विवाद जारी है, हालांकि किसी भी वीडियो को फर्जी कहकर मुद्दों को भटकाना भी एक फैशन बन गया है। लेकिन फिर भी कन्हैया और जेएनयू प्रकरण में जितना बड़ा गुनहगार वो वकील समुदाय है जिसने पटियाला हाउस कोर्ट में मारपीट की उससे बड़ा गुनहगार है वो मीडिया समुदाय है जिसने चौबीसों घंटे स्क्रीन पर रंग-बिरंगे थोबड़ों से यह बहस करवाई और बार-बार कहलवाया कि अफजल की फांसी पर बहस होनी चाहिए । उनलोगों को स्क्रीन स्पेस दिया जिनकी नजर में आजाद कश्मीर की मांग करना, देश के टुकड़े करने की बात करना गुनाह नहीं है। ठीक उसी तरह श्री श्री रविशंकर का कार्यक्रम एक साल से भी ज्यादा पहले तय होचुका था। कार्यक्रम के जब चंद दिन रह गए तब जाकर मीडिया और पर्यावरणवादी सक्रिय हुए। मीडिया ने तूल दिया और एनजीटी की नींद खुल गई। दरअसल यह सब मामले की गंभीरता जाने बगैर अनपढ़ों की तरह व्यवहार करने का नतीजा है । एक दौर था जब प्रिंट मीडिया के पत्रकार टेलीविजन न्यूज के पत्रकारों को कम पढ़ा-लिखा मानते थे लेकिन अब जबकि प्रिंट मीडिया के कई नामचीन लोग भी टेलीविजन स्क्रीन की शोभा बढ़ाते हैं, टेलीविजन न्यूज का दिनोंदिन गिरता स्तर जरुर चिंता बढ़ाता है। अब ताजा तरीन मामले पर नजर डालिए। विजय माल्या , नाम, पहचान ,शोहरत और पैसे का मोहताज नहीं। हर तरफ विजय माल्या की चर्चा है। लेकिन विजय माल्या जब तकरीबन पांच साल से बैंकों के करीब 9 हजार रुपये पचा कर ऐश कर रहा था, कुछ को छोड़ कर मीडियाको कहीं कुछ पता नहीं था। जितनी हाय तौबा मीडिया ने अब मचाई है उतनी अगर किंगफिशर एयरलाइंस के दिवालिया होने के वक्त मचाई होती तो शायद अब तक उसके कर्मचारी अपनी तनख्वाह का इंतजार नहीं कर रहे होते । कमाल तो देखिए देश छोड़ कर बाहर जाने से एक रोज पहले तक वो संसद में देखागया और हो भी क्यूं नहीं, माननीय सांसद जो ठहरे।  जब माल्या लंदन भाग गया तब अब मीडिया और विपक्ष हंगामा मचा रहे हैं। मामला यहीं तक नहीं हैबल्कि स्तर गिरने का मामला तो अब शुरु होता है। माल्या के देश से बाहर होने की खबर फैलते ही आदतन टीवी मीडिया उसपर टूट पड़ता है। उसके सारे कच्चे चिट्ठे खंगाले जाने लगते हैं और इसी बीच जनाब माल्या का लंदन से एक ट्वीट आता है जो हाल के भारतीय मीडिया में से ज्यादातर का चेहरा बेनकाब करता है। देश के बैंको का नौ हजार करोड़ दबाकर फरार इंसान यह कहता है कि मीडिया वालों जरा होश से काम लो , तुम में से किन किन को हमने क्या - क्या सुविधाएं  मुहैया नहीं कराईं, कितना ऐश कराया सब डाक्यूमेंटेड हैं इसलिए जरा संभल कर। हालांकि कुछ पत्रकारों ने इसके विरोध में तुरंत सोशल मीडिया का सहारा लिया लेकिन किसी ने इस विरोध में अपने भोंपू टेलीविजन का इस्तेमाल अब तक नहीं किया। जिस तरीके से ट्वीट में माल्या ने टीआरपी का जिक्र किया है उसका इशारा साफ तौर पर टेलीविजन की तरफ है , हां यह चर्चा जरुर सुनी जा रही है कि खिलाया तो खाया , खबर से परहेज क्यूं करें। सवाल एक माल्या , एक कन्हैया या एक रविशंकर का नहीं है, सवाल एक अन्ना का और एक अरविंद केजरीवाल का भी नहीं है। सवाल देश का है, देश की सोच का है। एक रिपोर्टके मुताबिक इस समय बैंकों के करीब चार लाख करोड़ रुपये डूबे हुए हैं। माल्या ने जितना पचाया है वो कुल हिस्से का 5 फीसदी भी नहीं है। माल्या लंदन भागगया। जो कारोबारी 95 फीसदी पैसा डकार कर अभी देश में बैठा है क्या मीडिया उसके लंदन भागने का इंतजार कर रही है । विपक्ष और सरकार तो शायद कर ही रहे हैं। और तो और अब इन मीडिया मुगलों के बीच सरेआम तू-तू मैं-मैं भी होने लगी है, हालात ये हो गए हैं कि देश का कोई भी व्यक्ति टीवी चैनलों को देखकर साफ तौर पर यह अनुमान लगा सकता है कि फलां चैनल अमुक पार्टी का पक्षधर है। कॉरपोरेट घरानों की आपसी लड़ाई हो या  फिर सरकारी महकमे केनौकरशाहों के बीच की लड़ाई। जब भी ऐसा होता है तो भीतर की असलियत बाहर आती है। सूरत साफ होने लगती है। कई धमाकेदार खुलासे भी होते हैं जिनसे देश को लाभ भी मिलता है। मीडिया में प्राय: ऐसा नहीं था। एक मीडिया घराना, दूसरे मीडिया घराने के खिलाफ कुछ भी लिखने और दिखाने से बचताथा लेकिन इन दिनों मीडिया में एक नया ट्रेंड देखने को मिल रहा है। एक चैनल दूसरे चैनल की सार्वजनिक खिंचाई में जुट गया है। एक बड़ा पत्रकार दूसरे बड़ेपत्रकार की खुलेआम खिंचाई कर रहा है। इतना ही नहीं शायद पहली बार इस मामले को सीधे दर्शकों के बीच उछाला जा रहा है डिबेट में, सेमिनार में औरअपने-अपने टीवी स्क्रीन पर यह दिखाने की कोशिश हो रही है मेरी कमीज से तुम्हारी कमीज सफेद कैसे। दरअसल यही सोच खतरनाक है। अफजल गुरु से भी ज्यादा, उमर खालिद से भी ज्यादा और माल्या से भी ज्यादा। यह सोच बतलाती है कि मीडिया के ये दिग्गज अपने आप को बड़ा पत्रकार ही नहीं बल्कि पत्रकारिता से बड़ा मान बैठे हैं। सरकार और विपक्ष की नूरा-कुश्ती में मीडिया अपनी भूमिका निभाने के बजाय उनमें से किसी ने किसी का पैरोकार बनता जा रहा है। एक पार्टी जब विजय माल्या की बात करेगी तो दूसरी क्वात्रोची के किस्से शुरु कर देगी। एक ललित मोदी का जिक्र करेगा तो दूसरा एंडरसन को याद करने लगेगा, वो तो देश की राजनैतिक पार्टियां हैं लेकिन जब इसी सुर में टेलीविजन भी गाने लगता है तो चिंता स्वाभाविक हो जाती है। इसलिए अब वक्त आ गया है कि इन मुद्दों पर सार्वजनिक बहस हो, टेलीविजन न्यूज चैनल चलाने के लिए नियम-कायदों और उसके लाभ-हानि पर सरकार के साथ विस्तृत चर्चा हो। मैं तो कहता हूं पक्ष-विपक्ष की पत्रकारिता क्या पत्रकारिता निष्पक्ष भी नहीं होनी चािहए । पत्रकारिता जनपक्ष की होनी चाहिए । महज गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार से सम्मानित होने से देश में पत्रकारों की साख नहीं बचेगी, टीवी स्क्रीन ब्लैक करने से अघोषित आपातकाल नहीं आएगा बल्कि गणेश शंकर विद्यार्थी का छात्र बनना होगा अपने हित किनारे करके पत्रकारिता की साख बचानी होगी नहीं तो देश में अन्ना के आंदोलन होते रहेंगे और उससे अरविंद केजरीवाल सरीखे लोग दिल्ली की सत्ता पर काबिज होते रहेंगे। ललित मोदी और विजय माल्या देश के हजारों करोड़ रुपए लेकर भागते रहेंगे और हम उनके ट्वीट पर बेचैन होते रहेंगे। नीरा राडिया के टेप फिजाओं में गूंजते रहेंगे और उन टेप में शामिल होने वाले अपने को देश का बड़ा पत्रकार साबित करते रहेंगे। गौर कीजिए नीरा राडिया प्रकरण अभी तक देश भूला नहीं है उसपर माल्या का यह ट्वीट भविष्य के लिए अच्छे संकेत नहीं है। 

सुगौली संधि के बहाने

Published on 19th March 2016 in Jansatta
200 साल बाद हम आज एक ऐसी घटना को याद कर रहे हैं जो ऐतिहासिक के साथ-साथ सांस्कृतिक भी है। ऐतिहासिक रणभूमि पर घटी यह एक ऐसी घटना है जिसके जरिए हम युद्ध नहीं वरन् संधि की बात कर रहे हैं। जी हां सुगौली संधि। पिछले सालों में भारत और नेपाल के बीच हुई सुगौली की इस संधि की चर्चा तो बार बार हुई है लेकिन जिस स्तरपर होनी चाहिए वो नहीं हुई। जैसा कि हम जानते हैं और हमने पढ़ा है, देखा है कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास की चर्चा में ज्यादातर इतिहासकार १७९५ के बाद एक लंबी छलांग लेते हैं और सीधे सिपाही विद्रोह पहुंच जाते हैं। इस बीच में हिंदुस्तान में घटी कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक है सुगौली संधि। यह कहना ठीक नहीं कि इतिहासकारों ने सुगौली के साथ बेईमानी की है कि लेकिन यह कहना गलत न होगा कि ज्यादातर इतिहासकारों ने दो देशों के बीच घटी इस महत्वपूर्ण घटना को नजरअंदाज करके अन्याय किया है। दो देश जिसकी सीमा रेखा सैकड़ों किलोमीटर तक फैली है और जिसके दोनों तरफ एक जैसे लोग बसते हों उनके बारे में विस्तार से लिखने में क्यूं कोताही बरती गई यह समझ से परे है। वो तो इस इलाके की मिट्टी की तासीर है कि यहीं से जन्मे कुछ रचनाकारों ने सुगौली और सुगौली संधि की भूमिका से देश को अवगत कराया है। मुगलों के जाने के दौर से अंग्रेजों के भारत पर शासन के दौरान तमाम ऐसी घटनाएं घटी हैं जो भौगोलिक दृष्टि से देश के सांस्कृतिक स्वरूप से परिचित कराती है। रियासतों के साम्राज्य भारतवर्ष के उत्तर में राणा, नेवार और गोरखाओं का राज था। ये राजा भी भारत के मराठा बाजीराव और महाराणा प्रताप की तरह अपने साम्राज्य का विस्तार और हिंदू संस्कृति का विस्तार करते रहे। पहली बार में गोरखाओं ने ईस्ट इंडिया कंपनी के योद्धाओँ को पटखनी दी लेकिन धुन के पक्के गोरों ने १८१३ से १८१५ तक लगातार लड़ाई कर नेपाल को उनके पुराने इलाके तक सीमित रखा। दो साल चली लड़ाई के बाद १८१५ के दिसंबर में यहीं सुगौली के धनही गांव में संधि हुई, और ४ मार्च को दोनों साम्राज्यों ने इस संधि को स्वीकार कर लिया।
इसी अवसर पर दौ सौ साल बाद भारत-नेपाल के संबंधों को ध्यान में रखते हुए ४-५ मार्च २०१६ को सुगौली संधि समारोह का आयोजन हुआ। इस आयोजन में दोनों देशों के चिंतक, रचनाकार, पत्रकार , इतिहासकार और राजनेता शामिल हुए।   दो दिनों तक यहां भारत-नेपाल के इतिहास और उनके मौजूदा संबंधों पर विस्तार से चर्चा हुई। हालांकि पहले से तय कार्यक्रम और तमाम प्रशासनिक तैयारियों  के बावजूद बिहार के राज्यपाल रामनाथ कोविंद ऐन मौके पर क्यूं नहीं आए यह कौतूहल का विषय है और हमारी जानकारी के हिसाब से चुंकि रामनाथ कोविंद संघ के पुराने कार्यकर्ता हैं और उनका मंच से कुछ भी कहना या फिर उनके मंच से किसी मेहमान के द्वारा कुछ भी कहा जाना सीधे केंद्र सरकार से संबंध रखता लिहाजा दिल्ली के आदेश का पालन करते हुए उन्होंने डिबेट में हिस्सा लेने से परहेज किया। लेकिन परिचर्चा के दौरान दोनों देशों से आए वक्ताओं ने भारत-नेपाल संबंधों पर और उसके इतिहास पर खुल कर बोला। एक तरफ जहां सभी वक्ताओं ने भारत-नेपाल के संबंधों और नेपाल के मौजूदा भौगोलिक स्वरूप के लिए इस संधि को महत्वपूर्ण माना वहीं मौजूदा परिदृश्य में मधेशी आंदोलन और मधेश की मांग के मुद्दे को दोनों देशों के संबंधों के लिए जरुरी तथ्य माना। दरअसल हाल की घटनाओँ पर गौर करें तो भारत और नेपाल की चर्चा के दौरान नेपाल के मौजूदा संकट और मधेशी आंदोलन से अछूता नहीं रहा जा सकता और फिर जब हम चर्चा भारत-नेपाल के बीच हुई संधि की कर रहे हों तो तब तो बिल्कुल नहीं। हाल के कुछ महीनों में नेपाल में संविधान के विरोध में जो आंदोलन हुआ है उसने देश की अर्थव्यवस्था की चूलें हिला दी हैं। बंद एसी कमरे में चाहे जितने लंबे भाषण दिए जाएं लेकिन जब उन इलाकों के लोगों की परेशानियों पर गौर किया जाता है तो लगता है इससे मुंह मोड़ना नाइंसाफी होगी। 
सुगौली संधि स्वरूप जो जगह-जमीन नेपाल को ईस्ट इंडिया कंपनी ने १८१६ में सौंपी उसमें१८५७ के बाद बढ़ोतरी कर दी गई। १८५७ के विद्रोह के वक्त सुगौली में ब्रिटिश छावनी स्थापित हो चुकी थी और इस छावनी से उठी विद्रोह की आग को दबाने में नेपाल के राजा ने ब्रिटिश सरकार का साथ दिया था। हालांकि हो सकता है कि वो उनकी तात्कालिक मजबूरी रही होगी लेकिन ब्रिटिश इंडिया ने ईनाम स्वरूप जो तराई का इलाका नेपाल को सौंपा उससे नेपाल को लाभ हुआ और भारत के सीमावर्ती इलाके में लोगों को यह बात आज भी कचोटती है। बड़े भाई का रोल अदा करने के बाद भी उसे वो सम्मान नहीं मिला, यह कहना गलत न होगा कि इसके पीछे भी ब्रिटिश इंडिया की कुछ अलग सोच रही होगी। सुगौली से ज्यादा बेहतर जल जमीन देश के कई हिस्सों में कईयों की होगी लेकिन ऐसा इतिहास कितनों का होगा इसमें संदेह है। वरिष्ठ दिवंगत रचनाकार रमेशचंद्र झा ने तो सुगौली का ऐसा इतिहास लिखा है जिसे बार-बार पढ़ने के बाद भी लगता है कि एक बार फिर पढ़ें क्यूंकि एक-एक कर दृश्य आपके सामने आते हैं। आज इस संधि को हुए दौ सौ साल हो चुके हैं। गंडक में कितना पानी बहा होगा इसकी कल्पना नहीं की जा सकती है लेकिन इस संधि के बारे में सही जानकारी न देकर एक तरफ जहां इतिहासकारों से गलतियां हुई हैं उससे ज्यादा गलतियां यहां के बाद की पीढ़ी ने की जिन्होंने इस संधि का उचित महत्व नहीं जाना और न ही जानने की कोशिश की। यह तथ्य सर्वविदित है कि अगर आप अपनी संस्कृति, अपने धरोहर और अपने इतिहास को जिंदा नहीं रखेंगे तो कोई और उसे तबाह करने में कोई कसर नहीं छोड़ेगा। और इसी का नतीजा है नेपाल और भारत के बीच पूरे तराई इलाके में मधेश मुद्दा सुरसा की मुंह की तरह बड़ा होता जा रहा है।
इस समारोह में शामिल हुए नेपाल के पूर्व सांसद गोपाल ठाकुर ने बड़ी अहम बात उठाई - 2011 की जनगणना के मुताबिक नेपाल में ४८ फीसदी आबादी मधेशियों की है. इसमें नेपाल के मूल और भारत से गए दोनों शामिल है. यहां की बोली मैथिली, भोजपुरी, बज्जिका और नेपाली है. पर दिक्कत ये है कि नेपाल के ५६ लाख लोगों यानि कि मधेशियों को अब तक वहां की नागरिकता नहीं मिल पाई है. जिन्हें नागरिकता मिली भी है, वह किसी काम की नहीं क्योंकि उन्हें न ही सरकारी नौकरी में जगह मिलता है और न ही संपत्ति में, यानी सिर्फ कहने को वे नेपाली नागरिक हैं. भारत के साथ मधेश का एक अलग सम्बन्धियों वाला और पारिवारिक रिश्ता रहा है. मधेशी शुरू से लेकर अब तक एक ही प्रश्न से जूझते आये कि आखिर वे किस राष्ट्र के नागरिक हैं. और समय के साथ साथ मधेशियों के पहचान का ये संकट और गहराता गया. यदि कुछ पूंजीपतियों को छोड़ दिया जाये तो मधेश के लोगों के यह सवाल अब भी बना हुआ है कि वे खुद को किस देश का नागरिक कहें. नेपाल का या भारत का. फ़िलहाल चूंकि ये लोग नेपाल में रहते हैं और बहुत सारे लोगों को नेपाली नागरिकता भी प्राप्त है लेकिन पहले भी अधिकार सीमित थे और नए संविधान में भी अनदेखी की गई है। वहां की सेना में मधेश के लोगों को जगह नहीं मिलती क्यूंकि उनको पिछड़ा और कायर माना जाता है। ऐसे में सीमावर्ती इलाके में होने वाला विरोध भविष्य में भारत के लिए खतरनाक साबित हो सकता है। 
समारोह के प्रमुख वक्ता विभूति नारायण राय ने कहा कि "मधेशी आन्दोलन का सबसे दुखद पहलु ये रहा है कि जब जब उन्होंने अपने नागरिक अधिकारों की बात ही है उन्हें भारत के साथ जोड़ दिया गया है। और भारत को भी बड़े भाई का रोल अदा करना होगा न कि बिग ब्रदर का। " वरिष्ठ परत्रकार अरविंद मोहन ने कहा कि "भारत और नेपाल के बीच रोटी-बेटी का संबंध है। ऐसे में हम उनका साथ देने को तैयार हैं लेकिन उनको अपनी लड़ाई खुद लड़नी होगी क्यूंकि हमारा हस्तक्षेप बाहरी हस्तक्षेप कहलाएगा जो दोनों देशों के संबंधों के लिए ठीक नहीं है" वहीं नेपाल के मौजूदा सासंद हरिचरण साह ने कहा कि "जैसा कि हम सब जानते हैं कि नेपाल में एंटी-इंडियन होने का अर्थ है सच्चा राष्ट्रवादी होना. यह और बात है कि भारत अब भी यह बात नहीं समझ पाया है और वो पहाड़ियों को ही अपने ज्यादा करीब पाता है." मधेशियों पर ये आरोप लगाये जाते रहे हैं कि ये कभी भी भारत विरोधी नहीं रहे इसलिए ये सच्चे नेपाली नहीं हो सकते. अभी भी जब राज्य विभाजन की बातें की गई हैं तो सबसे पहले यही कहा गया है कि अगर मधेश मजबूत हो गया तो भारत नेपाल में अपना अधिकार जमा लेगा। दरअसल यह एक आधारहीन डर है जो नेपाल के ज्यादातर राजनेताओं में बैठा हुआ है।  पर इन तमाम शोषण और दमन के बीच मधेशियों ने अपनी मेहनत से तराई-भूभाग को सबसे बेहतर फर्टाइल लैंड में बदल दिया है. पर जितने भी पहाड़ी शासक रहे चाहे वो राजा महेंद्र हो, राजा ज्ञानेंद्र या श्री 3 राणा सरकार सबने शोषण और दमन के बल पर मधेशियों की ज़मीने जब्त की। एक राजा वीरेंद्र को छोड़ दूसरे किसी शासक ने वहां जनता के दिल में जगह नहीं बनाई। इन तमाम दुविधाओं के बावजूद मधेशी अपना वजूद नेपाल में ही तलाशते हैं, जहाँ से सदियों से रहते आये हैं, अपने अधिकार पाने के लिए संघर्ष करते आये हैं और जिसे दिल से अपना मानते हैं. 
हमें इस तथ्य को स्वीकार करना चाहिए कि कोई भी संधि एकतरफा नहीं होती । जब किसी भी युद्ध का हल नहीं निकलता तो बात संधि पर आकर टिकती है। संधि में दोनों पक्ष बराबर पर होते हैं, अगर कोई पक्ष कमजोर होगा तो दूसरा उसपर काबिज हो जाएगा संधि नहीं करेगा। ऐसे में यह सोचना ही उद्वेलित करता है नेपाल के राजा ने ब्रिटिश इँडिया को क्या जबरदस्त चुनौती दी होगी। ठीक उसी तरह नेपाल के कुछ लोगों का यह मानना कि इस संधि से नेपाल को नुकसान हुआ सरासर गलत है। हमारी नजर में नेपाल को जो सबसे बड़ा लाभ हुआ वो यह कि इस संधि के बाद नेपाल एक संपूर्ण राष्ट्र के तौर पर स्थापित हुआ और बाद के दिनों में नेपाल संप्रभु राष्ट्रों की गिनती में शामिल हुआ। अन्यथा बाद में इतिहास नेपाल को एक रियासत तक सीमित रख जाता।

Sunday, December 7, 2014


बहुत पहले एक पत्रिका आती थी "विचार मीमांसा"... इस पत्रिका ने अपने शुरुआती दिनों में ही सर्कुलेशन में इंडिया टुडे को पछाड़ दिया था ... एक कवर स्टोरी थी "बंदर के हाथ में बिहार" तत्कालीन मुख्यमंत्री Monte Carlo की 21000 की स्वेटर पहने कुर्सी पर उकड़ू बैठे थे.. मोदी को घोंघा-मछली खिलाने वाले मुख्यमंत्री के लिए युवा पत्रकार कुछ शीर्षक सुझाएं..

Tuesday, January 26, 2010

डाउन मार्केट हिंदी पत्रकार !


ये कुंठा है, ये सच है या फिर कोई पीड़ा। 25 जनवरी को दिल्ली के इंडिया इटरनेशनल सेंटर में एक गोष्ठी का आयोजन हुआ, विषय था Can Rural Reporting Be Sexy. यहां हमें सेक्सी के शब्दार्थ पर जाने की बजाए उसका भावार्थ समझने की जरुरत है। और उस दर्द को समझने की जरुरत है जिसकी वजह से इस विषय पर संगोष्ठी का आयोजन हुआ। आयोजन में देश के बड़े-बड़े पत्रकार, समाजसेवी और यहां तक कि केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री भी शरीक हुए। ग्रामीण पत्रकारिता से जुड़े मुद्दे पर मंत्री का शरीक होना एक अच्छा शगुन है लेकिन इस गोष्ठी के बाद हमारे मन में दो सवाल पैदा हुए.एक गोष्ठी पर जिसे कमोबेश नरेगा और आरटीआई के इर्द-गिर्द सीमित कर दिया गया, और दूसरा यह कि इस देश के बड़े अँग्रेजी पत्रकार न जाने किस चश्मे से देश को देखते हैं, गांवों की जनता को देखते हैं और वो भी तब जब उनमें से कई खुद भी गांव से आते हैं या फिर आने का दावा करते हैं। इस गोष्ठी में अंग्रेजी पत्रिका आउटलुक के प्रधान संपादक विनोद मेहता और टाइम्स ऑफ इंडिया के संपादक अरिंदम सेनगुप्ता मौजूद थे। दोनों देश के बड़े काबिल मैनेजर पत्रकार हैं। दोनों ने अपने प्रोडक्ट को उंचाइयां दी है। दोनों बाज़ार को समझते हैं। लेकिन एक पीड़ा है, एक दर्द है जो उसी संगोष्ठी में मौजूद आईबीएन 7 के मैनेजिंग एडिटर आशुतोष की बातों से साफ नज़र आई। मेहता और सेनगुप्ता ने साफ तौर पर कहा कि आज का संपादक मालिकों के इशारे पर थिरकता है, मैनेजरों से गलबहियां करता है क्योंकि उसे प्रोडक्ट बेचना है, और तो और सेनगुप्ता ने कहा क्योंकि हमारा पाठक शहरी है इसलिए हमें गांवो की रिपोर्ट ज्यादा नहीं लुभाती। एक हद तक यह सच भी है लेकिन इससे बड़ा सच है कि हम जो पाठकों या दर्शकों को परोसते हैं उन्हें उसी से संतोष करना पड़ता है। दरअसल जनता के पास साधन नहीं है कि वो अपने हिसाब से अखबार छापे या फिर चैनल चलाए लेकिन जैसे ही उसके आस-पास की, उसके मन की बात की जाती है वो उसे अपना समझता है या फिर जो उसे परोसा जा रहा है उसी में बेहतर विकल्प की तलाश में रहता है। तभी तो आज भाषाई पत्रकारिता उफान पर है। अखबार ज़िले के पेज बना रहे हैं, राज्यों में कई-कई सेटेलाइट चैनल खुल रहे हैं। लेकिन दिल्ली में बैठे ये पत्रकार मैनेजर दिल्ली की पत्रकारिता को ही मेनस्ट्रीम पत्रकारिता मान बैठे हैं। आशुतोष ने एक और बात कही कि हमारा गांव और छोटे शहर समृद्ध हो रहे हैं..एक हद तक यह सच भी है औऱ हमारा बाजार भी अब वही लोग हैं लेकिन उस तरफ किसी का ध्यान नहीं जा रहा और जिसका जा रहा है वो उसका फायदा उठा रहे हैं। भाषाई पत्रकार खासकर हिंदी पट्टी से आनेवालों को दिल्ली में कैसा डाउन मार्केट समझा जाता है यह दर्द भी आशुतोष की बातों में झलका। इन सबके साथ मैं इन अंग्रेजी के बड़े पत्रकारों से कुछ कहना चाहूंगा जिन्हें शायद ग्रामीण मुद्दों की रिपोर्टिंग स्तरीय नहीं लगती, कि वो पाठकों को कैसा अखबार और कैसी पत्रिका देना चाहते हैं जिसमें कुछ कंटेंट हो या फिर सिर्फ मसाला। फिर मसाला परोसने के लिए बहाना ढूंढते हैं कि पब्लिक यहीं पढ़ना चाहती है। एक उदाहरण देता हूं मैं जब छोटा था तब मेरे घर (बिहार के एक छोटे से गांव में) पटना से छपने वाला एक अंग्रेजी अखबार The Indian Nation आता था। तब शायद बिहार में वो टाइम्स ऑफ इंडिया और हिंदुस्तान टाइम्स से ज्यादा बिकता था। पटना में गंगा पर गांधी सेतु नहीं था इसलिए कोई भी अखबार शाम में मिलता था। उस अखबार को मेरे दादाजी हर रोज़ शाम को गांव के कई लोगों को पढ़कर हिंदी में सुनाते थे। जब थोड़ा बड़ा हुआ तो देखा कि तकरीबन 10-12 कॉपी मेरे गांव में आने लगी। लेकिन जानते हैं अब क्या हो रहा है। अभी पिछले महीने मैं अपने गांव गया था और दिल्ली की लत की वजह से टाइम्स ऑफ इंडिया या हिंदुस्तान टाइम्स लाने के लिए किसी को कहा तो उसे बगल के गांव जाना पड़ा, औऱ वहां भी जो शख्स अँग्रेजी अखबार खरीदता है वो दिल्ली से विस्थापित हुआ एक पत्रकार है। मेरे गांव में अब कोई अँग्रेगी अखबार नहीं पढ़ता इसलिए नहीं कि लोग पढ़ना नहीं जानते बल्कि इसलिए कि वो उनकी खबरें नहीं छापता। जहां अब पहले से ज्यादा पक्की इमारते हैं.... पहले से ज्यादा गाड़ियां हैं वहां अंग्रेजी अखबार नहीं बिकता क्योंकि वो उनके बारे में नहीं लिखता और आपको बता दूं कि ये वो हिंदी पट्टी है जहां हिंदी के अखबार 5 रुपये के बिकते हैं और वो भी लाखों में। रही बात विषय की क्या छापें वो तो हमें तय करना होगा कि हमें मूड्स सेक्स सर्वे गांवो तक पहुंचाना है या फिर उनके मूड की ख़बरें छापनी है। इन अँग्रेजी पत्रकारों की बातों को सुनकर कई बार सिहरन पैदा होती है और लगता है बचपन में जो पढ़ाया गया कि भारत किसानों का देश है, गांवों का देश है वो वाकई गुरुजी के डंडे के भय से बना हुआ था, सच कुछ और ही है। हकीकत ये है कि हम जिन्हें डाउन मार्केट समझ रहे हैं उनकी नज़र में हम खुद डाउन मार्केट हैं तभी तो हमें वहां कोई नहीं पढ़ता। इसलिए इस कांपलेक्स से बाहर आकर हमें गांवों से जुड़े मसलों पर सोचना होगा क्योंकि अब भी जनता हमें चौथा खंभा समझती है और यह विश्वास बना रहे इसी में हम सबकी भलाई है।

Friday, January 22, 2010

अपना मर्सिया पढ़ रहे टीवी चैनल


आर्यावर्त के पाठकों को नए साल की शुभकामनाएं। www.mediasarkar.com को लांच करने में व्यस्त था इसलिए काफी समय से कुछ लिख नहीं पाया. अब आप हमें यहां लगातार पाएंगे साथ ही www.mediasarkar.com पर भी आप हमसे रु-ब-रु हो सकते हैं।

टीआरपी की अंधी दौड़ में तो अब हद ही हो गई है पिछले दिनों यूटीवी के बिंदास चैनल पर एक अश्लील कार्यक्रम शुरु हुआ है इमोशनल अत्याचार। इस कार्यक्रम में बेवफाई का स्टिंग ऑपरेशन किया जाता है। लड़के-लड़कियां अपने साथी की लायलिटी टेस्ट करवाते हैं। चैनल खुफिया कैमरे के जरिए इन सारी घटनाओं को अंजाम देता है। पता नहीं आप महसूस कर पा रहे हैं कि नहीं लेकिन ये ट्रेंड बहुत ही खतरनाक है एक तो रिएलिटी शो के बहाने अब कैमरा हमारे घर में घुस गया है, पर्दे के इस पार आ गया है और वो सब हो रहा है जो एक सभ्य समाज को कतई शोभा नहीं देता। सच का सामना करने के ऐसे तरीके अपनाए जाते हैं कि सालों से बसा बसाया घर बिखर जाता है, पिछले जन्म का राज जानने के बहाने अंध-विश्वास को बढ़ावा दिया जा रहा है, देश भर से प्रतिभा ढूंढने के बहाने कम उम्र की लड़कियों को उनके माता पिता के सामने टू पीस बिकनी में नचवाया जाता है, कई कई ब्वाय फ्रैंड रखने वाली और लिव-इन रिलेशन में रह चुकी ऱाखी सावंत का स्वयंवर कराया जाता है और अब तलाकशुदा राहुल महाजन स्वयंवधु ढूंढने निकले हैं । जो कैमरा खबरों औऱ समस्याओँ को दिखाने तक सीमित था, समाज का चेहरा था हमें जानकारियां देने का काम करता था, हमें दुनिया की हकीकत से रु-ब-रु कराता था अब हमारे बेडरूम तक जा पहुंचा है। साफ है बंदर के हाथ में उस्तरा थमा दिया गया है नतीजा कैसा होगा बताने की जरुरत नहीं। अभी कुछ दिन पहले ही मतंग सिंह ने महिलाओँ के सशक्तिकरण के लिये खोले गए अपने चैनल पर रात बारह बजे से एक कार्यक्रम शुरु किया है – रात अभी बाकी है, बिल्कुल इंडिया टीवी पर दो-तीन साल पहले दिखाए जाने वाले कार्यक्रम इंडिया बोले की तरह। पहले ही एपिसोड में दर्शकों के ऐसे सवाल कि मेहमान औऱ महिला एँकर दोनों असहज नजर आए। इतना ही नहीं इसी ग्रुप का दूसरा चैनल जो पूर्वांचली समाज का होने का दावा करता है उस पर भी एक ऐसा ही कार्यक्रम स्थानीय़ भाषा में शुरु किया गया है और शुरु करने वालों को दलील कि यहां के लोगों को मुख्यधारा में जोड़ने की कोशिश की जा रही है आखिर ये टीवी चैनल वाले चाहते क्या हैं ? एक तो बेसिर-पैर के कार्यक्रम और उसपर तुर्रा ये कि दर्शक जो चाहता है वही हम दिखाते हैं। सवा सौ करोड़ की आबादी में दस हजार से भी कम दर्शक तय करते हैं कि पूरा देश क्या देखना चाहता है ? ये एक ऐसा ट्रेंड है जिसपर लगाम हमें जल्द ही लगानी होगी। कैसे हम दर्शकों का स्वस्थ मनोरंजन करें इस पर हम कभी विस्तार से चर्चा करेंगे फिलहाल हम बात करते हैं बिंदास के इमोशनल अत्याचार की। इस कार्यक्रम पर कुछ भी कहूं उससे पहले में ये बता देना चाहता हूं कि खुफिया कैमरे का इससे घटिया, वाहियात और फिजूल इस्तेमाल पहले कभी नहीं देखा... उमा खुराना कांड में भी नहीं ... शक्ति कपूर के मामले में भी नहीं। अभी तक स्टिंग ऑपरेशन के इतिहास में ये दो मामले मेरी नजर में काले धब्बे थे। एक में जहां एक औरत को गलत फंसाया गया औऱ उसकी अस्मिता तार- तार हुई और दूसरे में मेनका बन विश्वामित्र नहीं बल्कि एक आम इंसान की तपस्या भंग करने की कोशिश की गई। स्टिंग ऑपरेशन किसी खुलासे का जरिया हो सकता है यह एक्सपोजे का माध्यम है, इसे कभी भी किसी को फंसाने का जरिया नहीं बनना चाहिए। इतनी सी बात खुफिया कैमरे का इस्तेमाल करने वाले ज्यादातर लोग अभी तक ठीक से समझ नहीं पाये हैं। इन सबको कम से कम अनिरुद्ध बहल की एक क्लास लेनी चाहिए शायद दिमाग पर से थोड़ा पर्दा उठे लेकिन लगता है इन्हें तो इसकी जरुरत ही नहीं क्योंकि ये तो भंडाफोड़ करने नहीं बल्कि किसी को फंसाने, किसी की निजी जिंदगी में तांक-झांक करने आए हैं। इमोशनल अत्याचार में इस्तेमाल किए जा रहे तथाकथित खुफिया कैमरे पर ही हमारा पहला विरोध है और दूसरा जो इसका सबसे बुरा पहलू है जिसे जानकर आप ये सोचने को विवश हो जाएँगे कि आखिर किन पर भरोसा करें और किन पर नहीं। एक प्रेमिका एक प्रेमी का स्टिंग ऑपरेशन करवाती है, स्टिंग ऑपरेशन में उस लड़के की दूसरी प्रेमिका नजर आती है फिर दोनों लड़कियां मिलकर उस लड़के की जासूसी करवाते हैं और फिर दोनों साथ बैठकर उस लड़के को किसी तीसरी लड़की के साथ बैठकर फ्लर्ट करते देखते हैं वो तीसरी लड़की रिएलिटी शो की टीम का हिस्सा है। शो की लड़की जिस तरीके से उस लड़के को सरे-बाज़ार फ्लर्ट करती है और लड़के को फंसाने के वो हरसंभव प्रयास करती है जो सभ्य समाज में शोभा नहीं देता। इसे न्यूज चैनलों ने कई दिनों तक खूब भुनाया। इस प्रोग्राम को देखते ही कुछ शक होता है, रिएलिटी शोज पर पहले भी सवाल उठते रहे हैं कि ये मैनेज्ड होते हैं लेकिन इमोशनल अत्याचार को देखने के बाद आपको यकीन हो जाएगा कि इनकी क्या हकीकत है, और इसे सच साबित कर दिखाया न्यूज चैनल न्यूज 24 ने। इस चैनल ने स्टूडियो में बिठाकर दोनों लड़कियों से बात की। इस बातचीत के दौरान ये साफ हो गया कि ये सब मैनेज्ड था। लड़कियां जिस तरीके से आपस में बात कर रही थीं उससे ये लग रहा था जैसे दोनों की काफी पुरानी जान पहचान हो इतना ही नहीं जब उन दोनों को आपस में ये बोला कि जवाब संभलकर देना कि इन्हें शक न हो तो सब साफ हो गया। इन दोनों लड़कियों में से एक एमटीवी के कार्यक्रम स्पिल्टिसविला में भी प्रतियोगी रह चुकी थी। मतलब पैसे के लिए कुछ भी हो रहा है। लड़कियां किसी को भी अपना प्रेमी बना रही हैं... लड़के पैसे के लिए कैमरे के लिए सामने लड़कियों से मार खा रहे हैं, फ्लर्ट कर रहे हैं। चैनल अपने टीआरपी के लिए कुछ भी कर रहे हैं इसे देखकर तो यही लगता है कि अब वो दिन दूर नहीं जब टीवी चैनल्स अपनी टीआरपी के लिये किसी की जान भी ले लेंगे और वो भी रिएलिटी शो के बहाने। लेकिन ये टीवी चैनल वाले इस बात को नहीं समझ रहे हैं कि विश्वास खोकर वो अपना ही मर्सिया पढ़ रहे हैं।