Published on 14th March 2016 in Inext |
क्या माना जाए लोकतंत्र के स्तंभ धीरे धीरे खोखले होते जा रहे हैं या फिर कुछ उम्मीद बाकी है। खासकर जब हम बात लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की करते हैं तो चिंता बढ़ने लगती है। पत्रकारिता का दिनोंदिन ह्रास हुआ है इसमें कोई शक नहीं है लेकिन जब बैंको के हजारों करोड़ का कर्ज लेकर फरार कोई शख्स मीडिया को धमकाए और बोले कि खामोश ..पोल खोल दूंगा तो चिंता और बढ़ जाती है। आज के दौर में जब हम मीडिया की बात करते हैं तो उसमें प्रिंट मीडिया हाशिए पर नजर आता है। सोशल मीडिया परिपक्वता से अभी काफी दूर है और टेलीविजन को तो जैसे शैशवकाल में ही पीलिया हो गया। पिछले कुछ समय का गौर करें तो टेलीविजन न्यूज ने क्या कमाल किया है देश में दिख रहा है। देश में आंदोलन की बयार से लेकर दिल्ली के वर्तमान मुख्यमंत्री तक मीडिया की देन हैं खासकर टेलीविजन मीिडया की। आजकल ही देखिए तीन खबरें पिछले तीस दिन से ज्याादा समय से स्क्रीन पर तैर रही हैं, और सारी एक निश्चित एजेंडे के साथ । चाहे वो कन्हैया हो, श्री श्री रविशंकर का संगीतनाद हो या फिर विजय माल्या। इन खबरों के अलावा टेलीविजन पर कुछ नहीं दिखता । और अब तो एक दूसरे चैनल वाले खुलेआम आपसी रिश्तेदारी - दुश्मनी भी निपटाने में जुटे हैँ। बात दिखती छोटी जरुर है लेकिन बहुत गंभीर है। हमें तो लगता है िक लोकतंत्र के किसी भी समस्या से ज्यादा गंभीर , अति गंभीर। शायद जीडीपी के गिरते स्तर से भी ज्यादा गंभीर है देश में मीडिया का गिरता स्तर। जल्दी, सबसे पहले, सबसे आगे और सबसे खनकदार दिखाने की होड़ में खबरों और देश दोनों से समझौता हो रहा है। गौर से देखिए कन्हैया मामले पर वीडियो पर विवाद जारी है, हालांकि किसी भी वीडियो को फर्जी कहकर मुद्दों को भटकाना भी एक फैशन बन गया है। लेकिन फिर भी कन्हैया और जेएनयू प्रकरण में जितना बड़ा गुनहगार वो वकील समुदाय है जिसने पटियाला हाउस कोर्ट में मारपीट की उससे बड़ा गुनहगार है वो मीडिया समुदाय है जिसने चौबीसों घंटे स्क्रीन पर रंग-बिरंगे थोबड़ों से यह बहस करवाई और बार-बार कहलवाया कि अफजल की फांसी पर बहस होनी चाहिए । उनलोगों को स्क्रीन स्पेस दिया जिनकी नजर में आजाद कश्मीर की मांग करना, देश के टुकड़े करने की बात करना गुनाह नहीं है। ठीक उसी तरह श्री श्री रविशंकर का कार्यक्रम एक साल से भी ज्यादा पहले तय होचुका था। कार्यक्रम के जब चंद दिन रह गए तब जाकर मीडिया और पर्यावरणवादी सक्रिय हुए। मीडिया ने तूल दिया और एनजीटी की नींद खुल गई। दरअसल यह सब मामले की गंभीरता जाने बगैर अनपढ़ों की तरह व्यवहार करने का नतीजा है । एक दौर था जब प्रिंट मीडिया के पत्रकार टेलीविजन न्यूज के पत्रकारों को कम पढ़ा-लिखा मानते थे लेकिन अब जबकि प्रिंट मीडिया के कई नामचीन लोग भी टेलीविजन स्क्रीन की शोभा बढ़ाते हैं, टेलीविजन न्यूज का दिनोंदिन गिरता स्तर जरुर चिंता बढ़ाता है। अब ताजा तरीन मामले पर नजर डालिए। विजय माल्या , नाम, पहचान ,शोहरत और पैसे का मोहताज नहीं। हर तरफ विजय माल्या की चर्चा है। लेकिन विजय माल्या जब तकरीबन पांच साल से बैंकों के करीब 9 हजार रुपये पचा कर ऐश कर रहा था, कुछ को छोड़ कर मीडियाको कहीं कुछ पता नहीं था। जितनी हाय तौबा मीडिया ने अब मचाई है उतनी अगर किंगफिशर एयरलाइंस के दिवालिया होने के वक्त मचाई होती तो शायद अब तक उसके कर्मचारी अपनी तनख्वाह का इंतजार नहीं कर रहे होते । कमाल तो देखिए देश छोड़ कर बाहर जाने से एक रोज पहले तक वो संसद में देखागया और हो भी क्यूं नहीं, माननीय सांसद जो ठहरे। जब माल्या लंदन भाग गया तब अब मीडिया और विपक्ष हंगामा मचा रहे हैं। मामला यहीं तक नहीं हैबल्कि स्तर गिरने का मामला तो अब शुरु होता है। माल्या के देश से बाहर होने की खबर फैलते ही आदतन टीवी मीडिया उसपर टूट पड़ता है। उसके सारे कच्चे चिट्ठे खंगाले जाने लगते हैं और इसी बीच जनाब माल्या का लंदन से एक ट्वीट आता है जो हाल के भारतीय मीडिया में से ज्यादातर का चेहरा बेनकाब करता है। देश के बैंको का नौ हजार करोड़ दबाकर फरार इंसान यह कहता है कि मीडिया वालों जरा होश से काम लो , तुम में से किन किन को हमने क्या - क्या सुविधाएं मुहैया नहीं कराईं, कितना ऐश कराया सब डाक्यूमेंटेड हैं इसलिए जरा संभल कर। हालांकि कुछ पत्रकारों ने इसके विरोध में तुरंत सोशल मीडिया का सहारा लिया लेकिन किसी ने इस विरोध में अपने भोंपू टेलीविजन का इस्तेमाल अब तक नहीं किया। जिस तरीके से ट्वीट में माल्या ने टीआरपी का जिक्र किया है उसका इशारा साफ तौर पर टेलीविजन की तरफ है , हां यह चर्चा जरुर सुनी जा रही है कि खिलाया तो खाया , खबर से परहेज क्यूं करें। सवाल एक माल्या , एक कन्हैया या एक रविशंकर का नहीं है, सवाल एक अन्ना का और एक अरविंद केजरीवाल का भी नहीं है। सवाल देश का है, देश की सोच का है। एक रिपोर्टके मुताबिक इस समय बैंकों के करीब चार लाख करोड़ रुपये डूबे हुए हैं। माल्या ने जितना पचाया है वो कुल हिस्से का 5 फीसदी भी नहीं है। माल्या लंदन भागगया। जो कारोबारी 95 फीसदी पैसा डकार कर अभी देश में बैठा है क्या मीडिया उसके लंदन भागने का इंतजार कर रही है । विपक्ष और सरकार तो शायद कर ही रहे हैं। और तो और अब इन मीडिया मुगलों के बीच सरेआम तू-तू मैं-मैं भी होने लगी है, हालात ये हो गए हैं कि देश का कोई भी व्यक्ति टीवी चैनलों को देखकर साफ तौर पर यह अनुमान लगा सकता है कि फलां चैनल अमुक पार्टी का पक्षधर है। कॉरपोरेट घरानों की आपसी लड़ाई हो या फिर सरकारी महकमे केनौकरशाहों के बीच की लड़ाई। जब भी ऐसा होता है तो भीतर की असलियत बाहर आती है। सूरत साफ होने लगती है। कई धमाकेदार खुलासे भी होते हैं जिनसे देश को लाभ भी मिलता है। मीडिया में प्राय: ऐसा नहीं था। एक मीडिया घराना, दूसरे मीडिया घराने के खिलाफ कुछ भी लिखने और दिखाने से बचताथा लेकिन इन दिनों मीडिया में एक नया ट्रेंड देखने को मिल रहा है। एक चैनल दूसरे चैनल की सार्वजनिक खिंचाई में जुट गया है। एक बड़ा पत्रकार दूसरे बड़ेपत्रकार की खुलेआम खिंचाई कर रहा है। इतना ही नहीं शायद पहली बार इस मामले को सीधे दर्शकों के बीच उछाला जा रहा है। डिबेट में, सेमिनार में औरअपने-अपने टीवी स्क्रीन पर यह दिखाने की कोशिश हो रही है मेरी कमीज से तुम्हारी कमीज सफेद कैसे। दरअसल यही सोच खतरनाक है। अफजल गुरु से भी ज्यादा, उमर खालिद से भी ज्यादा और माल्या से भी ज्यादा। यह सोच बतलाती है कि मीडिया के ये दिग्गज अपने आप को बड़ा पत्रकार ही नहीं बल्कि पत्रकारिता से बड़ा मान बैठे हैं। सरकार और विपक्ष की नूरा-कुश्ती में मीडिया अपनी भूमिका निभाने के बजाय उनमें से किसी ने किसी का पैरोकार बनता जा रहा है। एक पार्टी जब विजय माल्या की बात करेगी तो दूसरी क्वात्रोची के किस्से शुरु कर देगी। एक ललित मोदी का जिक्र करेगा तो दूसरा एंडरसन को याद करने लगेगा, वो तो देश की राजनैतिक पार्टियां हैं लेकिन जब इसी सुर में टेलीविजन भी गाने लगता है तो चिंता स्वाभाविक हो जाती है। इसलिए अब वक्त आ गया है कि इन मुद्दों पर सार्वजनिक बहस हो, टेलीविजन न्यूज चैनल चलाने के लिए नियम-कायदों और उसके लाभ-हानि पर सरकार के साथ विस्तृत चर्चा हो। मैं तो कहता हूं पक्ष-विपक्ष की पत्रकारिता क्या पत्रकारिता निष्पक्ष भी नहीं होनी चािहए । पत्रकारिता जनपक्ष की होनी चाहिए । महज गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार से सम्मानित होने से देश में पत्रकारों की साख नहीं बचेगी, टीवी स्क्रीन ब्लैक करने से अघोषित आपातकाल नहीं आएगा बल्कि गणेश शंकर विद्यार्थी का छात्र बनना होगा अपने हित किनारे करके पत्रकारिता की साख बचानी होगी नहीं तो देश में अन्ना के आंदोलन होते रहेंगे और उससे अरविंद केजरीवाल सरीखे लोग दिल्ली की सत्ता पर काबिज होते रहेंगे। ललित मोदी और विजय माल्या देश के हजारों करोड़ रुपए लेकर भागते रहेंगे और हम उनके ट्वीट पर बेचैन होते रहेंगे। नीरा राडिया के टेप फिजाओं में गूंजते रहेंगे और उन टेप में शामिल होने वाले अपने को देश का बड़ा पत्रकार साबित करते रहेंगे। गौर कीजिए नीरा राडिया प्रकरण अभी तक देश भूला नहीं है उसपर माल्या का यह ट्वीट भविष्य के लिए अच्छे संकेत नहीं है।
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