Sunday, August 2, 2009

मंच पर अंधेरा

अचानक रंगमंच का पुरोधा हमें खाली हाथ छोड़ गया। भोपाल में 8 जून को सूरज के उगने के पहले ही रंगमंच पर अँधेरा छा गया... और चरणदास चोर का कांस्टेबल अँधेरे में हमेशा के लिये गुम हो गया....जिसे देखने के लिये उमड़ी भीड़ को देख किसी रैली का अहसास होता था.... मिट्टी की वो गाड़ी मिट्टी में मिल गई जिसे हबीब अहमद खान ने बनाया था .... जी हां तनवीर साहब का असली नाम यही था... तनवीर के नाम से तो वो अखबारों में लिखा करते थे जिसे बाद में उन्होंने अपने नाम के साथ जोड़ लिया। और एक वक्त आया जब हबीब तनवीर थियेटर के पर्याय बन गये। तनवीर ने थियेटर की दुनिया में उस वक्त कदम रखा था जब थिएटर के अंत की चर्चा जोरों पर थी. लेकिन उनकी जिद ने थियेटर को फिर अमर कर दिया।

1923 में रायपुर में जन्मे हबीब तनवीर एक नाटककार ही नहीं बल्कि बेहतर कवि, अभिनेता और निर्देशक भी थे...लेकिन इस जिद्दी इंसान का मन न तो पोलैंड में रमा था और न ही मुंबई में जमा, कुछ दिनों तक ऑल इंडिया रेडियो में नौकरी भी की लेकिन भारतीय जन नाट्य मंच से जुड़ने के बाद वे रंगमंच के होकर रह गए। छत्तीसगढ़ के लोक कलाकार और वहां का लोक जीवन उनके अंदर रचा बसा था। इसी लोक जीवन के रंग बिरंगे रुप को वे जीवन भर मंच पर रचते रहे। आगरा बाजार हो या चरणदास चोर, मिट्टी की गाड़ी हो या शतरंज के मोहरे, बहादुर कलारिन हो या पोंगा पंडित हर नाटक में लोक जीवन के रंग हबीब ने इस अँदाज में भरे कि परंपरागत भारतीय थियेटर की पूरी तस्वीर ही बदल गई। तनवीर लोक जीवन ही नहीं लोक कलाकार की अंतरराष्ट्रीय पहचान बन गए। सम्मान और पुरस्कार की चकाचौंध में हबीब कभी शामिल नहीं हुए .... दरअसल हबीब को पुरस्कार उस अवार्ड को सम्मान है.... 1982 में चरणदास चोर को एडिनबर्ग में जब फ्रिंग फर्स्ट अवार्ड से नवाजा गया तब वहां स्टेज पर ये बातें किसी ने कही थी। तनवीर साहब को 1983 में पद्म श्री और 2002 में पद्म विभूषण मिला। 1996 में उन्हें संगीत नाटक अकादमी से भी सम्मानित किया गया। हबीब तनवीर 1972 से 1978 तक राज्यसभा के मनोनीत सदस्य भी रहे। तनवीर साहब एक ऐसा मंच सिरजना चाहते थे जिसका पर्दा कभी गिरे नहीं....लेकिन लंबी बीमारी ने भारतीय रंगमंच के उस पर्दे को गिरा दिया जिसके उस पार रह गए हबीब तनवीर। तनवीर साहब को मैं ज्यादा जानने का दावा तो नहीं कर सकता लेकिन मैं जितना जानता था ये जरूर कह सकता हूं कि जितनी शिद्दत से वो लोगों को ईद-मुबारक देते थे उतने ही मस्त होकर होली मनाते थे... खुश होकर दीवाली पर दिए जलाते थे । एक मुस्लिम परिवार में पैदा होने के बाद भी उन्होंने हिंदू लड़की मोनिका मिश्रा से शादी की और फिर जीवन रंगमंच और मोनिका जी के बीच ही बीत गया। दरअसल उन्होंने कभी अपने-आपको धर्म के बंधन में बंधने नहीं दिया। 94-95 की बात है हबीब साहब एनएसडी में अपनी टीम के साथ चरणदास चोर की प्रस्तुति के लिए आए थे। उस वक्त 70-72 साल की उनकी उम्र रही होगी.. और जिस कदर वो कांस्टेबल के किरदार में मंच पर दौड़ लगाते थे उसे देखने वाला देखता रह जाता... उन्हीं दिनों श्रीराम सेंटर में हमारे निर्देशन में मनोज मित्र के नाटक बगिया बांछाराम की का मंचन हो रहा था, मैंने उस नाटक के मुख्य किरदार हबीब साहब जैसी फुर्ती लाने को कहा, हमारा प्रयोग काफी सराहा गया और फिर हमारे काफी आग्रह पर हबीब साहब उस नाटक का एक शो देखने पहुंचे। थिएटर के इस पुरोधा से हमारा साबका पहली बार पड़ा था। कई साल बाद जब रामगोपाल बजाज ने एनएसडी में भारतीय रंग महोत्सव की शुरुआत की तब हबीब साहब अपने नाटकों के साथ वहां धूम मचाते नजर आए...तब तक मैं भी पूरी तरह टेलीविजन पत्रकारिता में आ चुका था। फिर तो कई मौकों पर उनसे मुलाकात हुई और बेबाक बातें भी। जैसे जैसे तनवीर साहब की उम्र बढ़ती गई.. उनका दिल्ली आना कम होता गया। दो साल पहले जब वो एक थिएटर फेस्टिवल में ज्यूरी के तौर पर आए थे तो उन्हें इस बात की खुशी थी कि उस फेस्टिवल को स्पांसर मिल गया था। थिएटर को स्पांसर मिलना अपने आप में एक इतिहास कायम होना था लेकिन दरअसल वो उस महान शख्स को सलाम था जिसकी जिद ने ये संभव कर दिखाया। हबीब साहब जैसों का ही जज्बा था कि थियेटर आज भी जिंदा है। इस महान शख्सियत के लिए दो शब्द-

आने वाली दुनिया मानव को पूजेगी

इस मिट्टी से कुछ मूरतें गढ़ने दो।

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