Sunday, August 2, 2009



भाई शैलेंद्र की याद में उन्हीं की कविताओं के जरिए हमारे एक वरिष्ठ सहयोगी अगस्त्य अरुणाचल ने अपने दिल की बात कही है, Italic पंक्तियां शैलेंन्द्र की है और उस कविता को अपनी व्यथा से बढ़ाया है अगस्त्य जी ने


जिंदगी..ये कैसा मुकाम है
ये कहां आकर तुम ठहर गई हो
क्या आगे बढ़ना सचमुच ही दुष्कर है
तो पीछे ही लौट पड़ो
क्योंकि मुझे याद है..
पिछले कुछ पलों में राहत मिली थी
हां जिंदगी.. पीछे ही लौट पड़ो

काश कि ज़िंदगी लौट पड़ती...
काश कि वक्त का पहिया पीछे चल देता...
एक बार... सिर्फ एक बार....
फिर तुम इस कविता को आगे बढ़ाते..
जिंदगी से कुछ और बतियाते...
संजीदगी से धर्म का मर्म बताते..

इस मध्य में तो दिखती नहीं कोई मुक्ति
वो तो बुद्ध ही थे जो चुन लिए मध्यपथ
मुझसे तो कुछ भी होता नहीं वैसा
जिंदगी... निर्दोष तो कल की तरह मैं आज भी हूं

क्यों अपना लिया इतना दर्द...
हां... मां-पापा का उठ गया था साया..
लेकिन दीदी ने तो तुम्हें प्यार दिया था
दर्द बन गई लेखनी की स्याही
फिर - 'जानता हूं जिंदगी'..
तुम्हारी कविता संग्रह आई
फिर भी तुम्हें कहां था चैन
लेखनी में स्याही थी बाकी
'कुछ छूट गया है”- तुमने लिख डाली
तब जहां ने तुमको जाना
दिल के दर्द को कुछ पहचाना
निदा फ़ाज़ली को कहना पड़ा था
इतनी कम उम्र में इतना दर्द..
हमने अपने जीवन में नहीं देखा
हां..जिंदगी को जीना तुमने सिखलाया
यारों को यारी तुमने समझाया
अब तुम कहां चले गए हो
सबकी संगत छोड़ गए हो...
देखो जिंदगी तुम्हें करती है याद
दोहराती है तुम्हारी दरख्वास्त

हां जिंदगी बोलो ...
ये कौन सा मुकाम है
मुझे यहां से कहीं ले चलो
सिर्फ एक एहसान कर दो
मेरी संवेदना मुझे लौटा दो
एक लेखक होने की इतनी सजा है
तुम्हारी कसम...
अब कभी मैं लिखूंगा कुछ भी नहीं
मां को चिट्ठी भी नहीं...
पापा को पत्र भी नहीं
दीदी को हां..हां...
उसे भी नहीं
पर मेरी भावना मेरी संवेदना मुझे लौटा दो

तुम्हारी लेखनी में स्याही है बाकी
देखो .. बेटा तकता है राह तुम्हारी
बिटिया का कुछ तो ख्याल करो
एक बार वापस लौट कर आ जाओ
लेकिन तुम तो कुछ सुनते ही नहीं
यार तो यार, दीदी की भी नहीं..
इतनी दूर तुम चले गए हो
दर्द का भंवर छोड़ गए हो
अब भी जिंदगी करती है याद तुम्हें
हम सबका आखिरी सलाम तुम्हें।

अगस्त्य अरुणाचल
एसोसिएट एक्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर
इंडिया न्यूज

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