Friday, November 6, 2009

यूं जाना गुरुजी का




राम नाम सत्य है .... इस बोल के साथ जब दिन के तकरीबन एक बजे पार्थिव शरीर को कंधा दे रहा था तो पूरे शरीर में एक सिहरन सी हुई और इस कठोर सत्य पर विश्वास करना पड़ा कि अब कभी गुरुजी के दर्शन नहीं होंगे। पल भर में पिछला पांच साल घूम गया, जी पिछले पांच साल में ही मैं व्यक्तिगत तौर पर उनके थोड़ा करीब आ पाया था और वो भी बड़ी हिम्मत जुटाकर जबसे मैं जनसत्ता अपार्टमेंट में उनके करीब रहने लगा था। हां एक लेखक और पाठक का रिश्ता काफी पुराना था। सच तो यही है कि उनकी लेखनी पढ़कर ही लिखने का शौक जगा और उस उम्र में ऐसा लगता था कि बस हमने पत्रकारिता शुरु की नहीं कि समाज में क्रांति आ जाएगी, लेकिन जल्द ही नौकरी करने लगा और दुनिया को बताने लगा कि पत्रकार हो गया हूं। यही सच है आज जब मीडिया के बड़े बड़े दिग्गज सिर्फ नौकरी कर रहे हैं प्रभाष जी आखिरी सांस तक पत्रकारिता करते रहे। सच तो ये है कि हिंदी पत्रकारिता का आखिरी स्तंभ ढह गया। इस दुनिया से आखिरी पत्रकार चला गया और हम लोग सिर्फ नौकरी करेंगे। अब शायद ही कोई पत्रकार बम-बम करेगा। प्रभाष जी पत्रकारिता से देश का भविष्य संवारना चाहते थे और हम सब पत्रकारिता से अपना भविष्य संवारना चाहते हैं। इसी बुनियादी फर्क का नाम है प्रभाष जोशी। हम बड़े खुशनसीब हैं कि हम उस दौर में हैं जब हमने प्रभाष जी को बड़े करीब से देखा । शुरु में उनका लिखा पढ़ता तो मिलने की इच्छा होती लेकिन धारदार लेखनी देखकर सोचता शायद बड़े कड़क होंगे तो फिर मन करता रहने दो फिर कभी। ग्रेजुएशन करने दिल्ली आया तो धीरे- धीरे यदा कदा किसी संगोष्ठी, किसी समारोह में मिलने लगा, थोड़ी- बहुत बात भी कर लेता लेकिन भीड़ से बच बचाकर। और सोचता अपना लेखक-पाठक वाला रिश्ता ही सबसे अच्छा है। ऐसे ही काफी समय बीत गया। लेकिन हमें तो इतिहास का गवाह बनना था चाहे वो थोड़े समय के लिये ही क्यों न हो। अचानक वैशाली का अपना घर बेचकर मैं वसुंधरा जनसत्ता में रहने आ गया। उस समय गुरुजी यहां कभी-कभार आते थे, धीरे-धीरे लगभग हर सप्ताहांत आने लगे और फिर दिल्ली में होते तो ज्यादातर यहीं रहते। उनके आने का कार्यक्रम हमें कभी कभार ही मालूम होता फिर भी अक्सर कभी सीढ़ियों पर कभी लिफ्ट में मिल जाते कभी उनकी गाड़ी खड़ी देख रामबाबू से उनका कार्यक्रम जानने की कोशिश करता। उधर दूसरी तरफ मेरी पत्नी और बेटा गुरुमाता से स्नेह पाते रहे। बचपन से जिस प्रभाष जी को जानते रहे उनका ऐसा सानिध्य मिलेगा हमने कल्पना नहीं की थी। कोलकाता प्रेसींडेंसी कॉलेज में किसी समारोह के दौरान मेरी पत्नी पहली बार उनसे मिली थी। एक लेखक के तौर पर वो हम दोनों के प्रिय थे और यही वजह है कि जब हमें करीब आने का मौका मिला तो हमने उसे अपने हाथ से नहीं जाने दिया। टेलीविजन की नौकरी से समयाभाव के कारण मैं थोड़ा नुकसान में रहा और उनका सानिध्य मेरे बेटे और पत्नी को ज्यादा मिला। मेरे बेटे से पूछते बड़े होकर क्या बनोगे.... वो कुछ भी कहता तो कहते क्यूं क्रिकेट अच्छा नहीं लगता... तेंदुलकर बनना नहीं चाहते। प्रभाष जी सचिन के इतने बड़े फैन थे.....अगर प्रभाष जी से पहले तेंदुलकर का दौर होता तो निश्चय ही वो खुद बड़ा होकर तेंदुलकर बनना चाहते। गुरुजी ने अपनी इनिंग भी तेंदुलकर की तरह खेली, शानदार, जानदार... सभी गोलंदाजों की बखिया उधेड़ते हुए। हैदराबाद में सचिन ने जिस तरह पारी खेली उससे पंद्रह साल पुराने सचिन की याद आ गई। ठीक उसी तरह प्रभाष जी ने अभी चंद दिनों पहले कागद कारे में चेताया था- खबरों के बेचने के काले धंधे को रोकने के पुण्य कार्य में फच्चर मत फंसाओं... टिकोगे नहीं। सच मानिए ये सिर्फ गुरुजी ही लिख सकते थे।

Saturday, October 3, 2009

बापू


बापू की जयंती पर अपने ब्लॉग के पाठकों को एक छोटी सी भेंट... यह विचार मेरे मन में आज से सत्रह साल पहले आये थे जब मैं दिल्ली विश्वविद्यालय का छात्र था।

बापू !
अच्छा हुआ तुम स्वर्गीय हुए,
मरकर स्मरणीय हुए
अगर तुम जिंदा होते
न जाने कितना शर्मिंदा होते
देश की हालत देख रोए होते,
कितना कुछ ढोए होते,
अपनों के विरुद्ध अबतक
अनशन पर प्राण खोए होते
वियावान जंगलों से गुजर रही थी
देश की गाड़ी
उसे तो तुमने बचा लिया
जालिम लुटेरों से
पर--
शहर के बीच आकर
आखिर लूट ही ली गई
अपने ही सवारियों से
आजादी की गाड़ी

आप बताएं क्या देश के हालात पिछले सत्रह सालों में सुधरे हैं.. क्या हम बापू को सच्ची श्रद्धांजलि दे पा रहे हैं।

Monday, September 28, 2009

पत्रकारिता को खिलवाड़ मत बनाओ

जंग और प्यार में सब जायज है यह साबित कर दिया इस बार बंगाल पुलिस ने... बंगाल पुलिस की कारगुजारी आजकल सुर्खियों में है ... एक नक्सली नेता की गिरफ्तारी हो चुकी है और पुलिस इसे अपनी बड़ी सफलता मान कर अपनी पीठ थपथपा रही है। जाहिर है जिस एक शख्स ने लालगढ़ में हफ्तों राज्य की पुलिस को और देश की प्रशासनिक व्यवस्था को चुनौती दी हो उसकी गिरफ्तारी पर खुश होना लाजमी है... लेकिन सवाल उठता है कि जिस तरीके से पत्रकारिता को मोहरा बनाकर इस कारनामे को अंजाम दिया गया है वो ठीक है....और उपर से मीडियाघरानों की चुप्पी, बड़े पत्रकार होने का दावा करने वालों की खामोशी आखिर किस तरफ इशारा करती है।
छत्रधर महतो और बंगाल पुलिस के इस नाटक पर कुछ लिखूं उससे पहले मैं बता देना चाहता हूं कि मैं मौजूदा हालात में नक्सलवाद का समर्थक नहीं हूं लेकिन अपने पाठकों को ये भी साफ करता चलूं इन नक्सलियों के बीच हमने एक बार नहीं ... कई बार हफ्तों दिन गुजारा है..... इनके साथ जंगलों की खाक छानी है .... जंगलों में जानवरों और नक्सलियों के बीच सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा की है.... इसलिये मैं अपने अल्पज्ञान से इनको काफी करीब से देखा है और इनकी बुराइयों पर जमकर लिखा भी है। पत्रकारिता से इतर बिहार के कुछ जिलों में नक्सलवाद को पनपते हमने काफी करीब से देखा है जाना है, समानता की इनकी बातें हमें अपील करती रही है लेकिन बेवजह हत्याओँ को मैं विरोधी रहा हूं। महीनों इनके साथ बिताने के बाद हमें लगा कानू सान्याल और चारू मजूमदार का मिशन रास्ते में भटक गया है.... जहां शराब और लड़की के सिवा कुछ नहीं बचा और एक दौरे से आने के बाद मैंने लिखा कि ये विस्फोट करते हैं माओ के नाम पर, अवैध वसूली करते हैं लेनिन के नाम पर और हत्याएं करते हैं मार्क्स के नाम पर बावजूद इसके इनमें संभावनाएं हैं और सरकारी नीतियों के लचीलेपन की वजह से यह देश के लिए बाहरी आतंकवाद से बड़ा खतरा है। लेकिन यहां जरा गौर से समझने की बात है नक्सलवाद एक विचार है और विचार से छेड़छाड़ खतरनाक हो गया है... लेकिन जिस विचार को लेकर छत्रधर महतो ने लड़ाई शुरु की उसपर सरकार को गौर करने की जरुरत थी।
हम लौटते हैं अपने मुद्दे पर नहीं तो यह एक ऐसा विषय है जिसपर काफी कुछ लिखा जा सकता है। मुद्दा यह कि जिस तरीके से पुलिस ने पत्रकार का सहारा लिया क्या वो तरीका ठीक है। यहां कई बाते हैं..... मैं सबसे पहले उन पत्रकारों को कठघरे में खड़ा करता हूं जिनके बारे में कहा जा रहा है कि विदेशी एजेंसी के पत्रकार बने पुलिसवालों से महतो की मीटिंग तय कराई। क्या ये जानबूझकर था, इसपर मेरा ये मानना है कि ऐसा संभव नहीं है क्योंकि स्थानीय स्तर का काई पत्रकार ऐसा जोखिम नहीं ले सकता क्योंकि वो इतना जो जानता है कि अपनी पंचायत लगाकर कान काटने, उंगली काटने या फिर कई दिन उल्टा लटकाने के फैसले करने वाले ये लोग गद्दारी को कभी माफ नहीं करेंगे... हां लेकिन उस पत्रकार की एक गलती जरुर है कि उसने चंद पैसों के लालच में बिना ज्यादा जांच पड़ताल किये इन नकली एजेँसी के पत्रकारों पर भरोसा कर लिया और उनका ऐसा करना भी कई सवाल खड़े करता है... यहां भी बात समानता की आती है कि जिस स्ट्रिंगर की खबरों के सहारे न्यूज चैनल या राष्ट्रीय अखबार बड़े-बड़े खेल कर रहे हैं उन्हें चंद पैसों के लिये क्या करना पड़ता है मतलब साफ है कि इस पेशे में भी समानता नहीं है और अगर समानता की वकालत करता छत्रधर महतो अपनी लड़ाई लड़ रहा है तो क्या बुरा कर रहा है। अगर वो स्थानीय पत्रकार संपन्न होता तो उसे ऐसे काम करने की जरुरत नहीं पड़ती और फिर भी करता तो उसे ठोक बजाकर करता। दूसरी बात इन पुलिस वालों की .. आप सोचिए अगर किसी खबर का सच जानने के लिए अगर आप पुलिस की वर्दी पहन लें और बकायदा रिवॉल्वर लगाकर कहीं पहुंच जाएं.... तो क्या हमारे देश का कानून हमें ऐसा करने की इजाजत देगा, कतई नहीं... तो फिर एक दूसरे पेशे को हथियार के रुप में आजमाने के लिये पुलिसवाले दोषी क्यों नहीं है। दशकों से पत्रकार वहां पहुंचते रहे हैं जहां पुलिस-प्रशासन का जाना दूभर रहा है और वो सिर्फ इसलिये कि इस पेशे पर तमाम बुराईयों के बावजूद हर तबका भरोसा करता रहा है। ऐसे में नकली पत्रकार बनकर ऐसा करना न सिर्फ पत्रकारिता के साथ धोखा है बल्कि समाज के साथ भी सौतेला व्यवहार है क्योंकि ऐसी घटनाएं बार-बार दुहराई जाएंगी.... और फिर समाज के उस तबके का विश्वास हमसे उठेगा जो सामने नहीं आना चाहता लेकिन पत्रकार उनकी बातें मुख्यधारा तक पहुंचाते हैं। इसके दूरगामी परिणाम बहुत ही भयानक होंगे क्योंकि जब समाज का कोई भी एक या उससे अधिक हिस्सा मुख्यधारा से कटेगा और उसके संवाद भी स्थापित नहीं होगा तो जाहिर है विवाद होगा क्योंकि – जहां संवाद नहीं है वहीं विवाद शुरु होता है। और फिर न तो किसी छत्रधर महतो को हम, आप या पुलिसवाले जान पाएँगे और न हीं ऐसी गिरफ्तारी हो सकेगी। कुल मिलाकर बंगाल पुलिस का ये कदम उस आतंकवादी से ज्यादा बेहतर नहीं है जिसने पत्रकार के वेश में वीडियो कैमरे में बम लगाकर अफगानिस्तान लोकप्रिय नेता अहमद शाह मसूद की हत्या कर दी थी। और इन सबसे ज्यादा चिंताजनक बात यह है कि इस मसले पर कोई कुछ बोल नहीं रहा.... ये खामोशी पत्रकारिता के लिए और खासकर खोजी पत्रकारिता के लिए जहां सूत्र काफी मायने रखते हैं ... बेहद खतरनाक है।

Tuesday, September 1, 2009

मतभेद सही मनभेद न हो

कई दिनों से सोच रहा हूं कि कुछ लिखूं, लेकिन लिख नहीं पा रहा हूं क्योंकि काफी समय बाद रोज-रोज के काम से ब्रेक लिया है तो उसका भरपूर आनंद ले रहा हूं...... पर कुछ भाइयों ने आज लिखने पर मजबूर किया... खैर.... आज जिस मुद्दे की बात करना चाहता हूं उस पर सीधे आने की बजाए आप लोगों को एक छोटा सा किस्सा सुनाना चाहता हूं......
एक गांव में एक सज्जन ने कुछ किताबें पढ़ ली, थोड़ी बहुत दूसरी भाषाएं भी सीख ली और रोज गांव वालों को उपदेश देने लगे....और गांव वाले भी बड़े चाव से सुनते क्योंकि गांव वाले कम पढ़े लिखे लोग थे इसलिए उन पढ़े लिखे सज्जन की बात उन्हें अच्छी लगती, उसी गांव में एक चाचा थे उन्हें ये व्यक्ति नागवार गुजरता... उन्हें लगता कि हमारा अनुभव कुछ और कहता है और ये सारी उल्टी बातें करता है। एक दिन तो हद हो गई जब उन सज्जन ने कहा कि ‘ मैं भगवान राम को कभी माफ नहीं कर सकता... भगवान राम ने जो माता सीता के साथ किया, लव-कुश के साथ किया उसके लिये मैं उन्हें कभी माफ नहीं कर सकता’ साथ ही वो मर्यादा पुरुषोत्तम को भला-बुरा कहने लगा. जो उसकी बातें सुन रहे थे अचंभे में पड़ गए कि भाई इस सज्जन ने क्या कह डाला, इसे क्या हो गया ... तभी चाचा बीच में से उठे और बोले – बेटा जब भगवान राम तुमसे माफी मांगने आएं तो उन्हें बिल्कुल माफ मत करना, उन्हें खूब जलील करना और कहना कि हे राम तूने क्या किया..फिलहाल दूसरी बातें कर, फिर चाचा बोले... जब राम तुमसे माफी मांगने आएंगे तब तो तुम उन्हें माफी नहीं देगा न...। वो तो तुमसे माफी मांग ही नहीं रहे और तू है कि इस जिद पर अड़ा है कि तू कभी उन्हें माफ नहीं करेगा। अचानक बैठक का माहौल बदल गया... और सबको पता चल गया कि इस व्यक्ति की कितनी गहरी पैठ है।
मैं ये किस्सा आप लोगों को इसलिये नहीं सुनाना चाह रहा था कि मैं किसी की तुलना भगवान राम से कर रहा हूं या फिर किसी के बचाव की मेरी कोई मंशा है बल्कि मैं सिर्फ ये कहना चाहता हूं कि मित्रों किसी के बारे में भी लिखने से पहले अपने गिरेबान में झांको, उसके किये की तुलना अपने कर्मों से करो औऱ सोचो कि उस शख्स ने जो हासिल किया है क्या वो यूं ही था... तो फिर आपको वो सब क्यों नहीं मिल रहा। जी हां मैं बात आदरणीय प्रभाष जी की ही कर रहा हूं, कुछ ब्लागिए भाई लोग उनके पीछे नहा धोकर पड़ गए हैं। दरअसल सच ये है कि ये लोग उनके जरिए अपनी प्रसिद्धि चाहते हैं, इन भाई लोगों को मीडिया समाज के भी लोग ठीक से नहीं जानते (उनके इतिहास पर मैं कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता नहीं तो मैं पथ-भ्रमित हो जाउंगा ) लेकिन ये लोग हैं कि किसी बड़े नाम का सहारा लेकर दिन-रात मशहूर होने की जुगत में लगे हैं और जब कोई उनका इष्ट-मित्र उनसे ऐसी हरकतें नहीं करने को कहता है तो उनका जवाब होता है अरे यार आज तो इस खबर पर 2 हज़ार हिट्स मिले हैं इसे कैसे रहने दूं । आखिर फार्मूला जो है --- हिट है तो फिट है.... लेकिन दोस्तों ये हिट-फिट का फार्मूला पत्रकारिता में ज्यादा दिनों तक नहीं चलता। मैं पूछता हूं इन ब्लागियों से कि ईमान से बोलना कि जब पत्रकारिता में आने की सोची और अपने छोटे शहर में कुछ लिखने पढ़ने लगे तो नहीं सोचते थे आखिर ये पत्रकार कैसा जीवट है जिसे प्रधानमंत्रियों का भी डर नहीं रहा, मालिकों की मनमानी नहीं सुनी, मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि जरुर सोचते होगे इस इंसान की जीवटता के बारे में ।
प्रभाष जी ने जो लिखा उसपर मतभेद हो सकता है, आप भी जाहिर कीजिए... हमारे मित्र दिलीप मंडल ने भी जाहिर किया लेकिन बड़ी सधी हुई भाषा में.... मतभेद होना चाहिए लेकिन मनभेद तो मत पालिए, और उपर से आलम ये कि एक एक लेख पर पंद्रह – पंद्रह कमेंट्स और वो भी बेनामी.... ये कैसी पत्रकारिता है यहां आपलोगों की कुंठाएं सामने आती हैं अगर प्रभाष जी का आलोक जी का ये फिर किसी भी जी का विरोध करना है तो अपने नाम के साथ कीजिए... लेकिन आप करेंगे कैसे क्योंकि आप कर ही नहीं सकते लिजलिजे हैं आप। आप को तो सिर्फ विवाद चाहिए क्योंकि उस विवाद से हिट्स मिलते हैं आपको - और फिर आप सभी के लिए एकमात्र लक्ष्य है मीडिया की सबसे बड़ी वेबसाइट भड़ास4मीडिया को मात देना। कम से कम उस रास्ते पर तो चलो जिस रास्ते पर वो चल रहा है। खबर देता है, मुद्दों पर बहस करता है और वहां बहस करने वाला बेनामी नहीं होता क्यों कि जो बेनामी है वहीं बेमानी है। जो लोग इन मुद्दों पर लगातार बहस किये जा रहे हैं वो अपने अतीत को भूल गये हैं। और जो लोग उस पर कमेंट्स कर रहे हैं दरअसल वो किसी दफ्तर में बैठकर आफिस टाइम में ब्लागिंग कर रहे हैं...काम नहीं आने की वजह से या फिर काम नहीं कर पाने की वजह से गालियां सुनने वाले दफ्तर के किसी कोने में बैठकर उस मालिक का पैसे जाया कर रहे हैं जो उन्हें वो काम करने के लिये देता है। कमेंट्स करने के लिये अगर इन्हें साइबर कैफे में पैसे देने पड़े तो ये कमेंट्स भी नहीं लिखे और मैं ये इसलिये दावे के साथ कह सकता हूं क्योंकि अक्सर मेरे पास दूसरे चैनलों से फोन आता था कि – सर आपके दफ्तर से फलां फलां व्यक्ति मेरे साथ पिछले कई घंटों से चैटिंग पर है तो प्लीज कोई जिम्मेदारी का काम इन्हें मत दीजिएगा नहीं तो निराशा होगी। दरअसल यही हकीकत है इनकी। ये नेट का इस्तेमाल तरक्की के लिए नहीं विनाश के लिये कर रहे हैं। और हां अपने सुधी पाठकों को बताता चलूं कि ये जो ब्लॉगिए हैं फिलहाल बेरोजगार हैं...दिल्ली के कई अखबारों में उठापटक चल रही है .. इन्होंने भी अपनी जोर आजमाइश शुरू कर दी है ... जल्द ही नौकरी करने लगेंगे और फिर आपको ये दिलचस्प मगर बेमतलब बहस पढ़ने को नहीं मिलेगी। अगर आपको यकीं नहीं आता तो एक-एक लाख की नौकरी का ऑफर देकर देखिए इन्हें।

Saturday, August 29, 2009

रोको मत अपनी कलम अमन के गीत लिखो

समिधा सुलगी, श्रृंगार सुलगने वाला है,
रोको मत अपनी कलम अमन के गीत लिखो।

नभ की गंगा का पानी कुछ गंदला सा है
मौसम पहले से कुछ बदला-बदला सा है
बदरी सी चारों ओर क्षितिज पर छायी है
मानो धरती की आग उभरकर आयी है
लिखते आए सदियों से गीत समर्पण के
इस कोलाहल में नवजीवन के गीत लिखो

समिधा सुलगी, श्रृंगार सुलगने वाला है,
रोको मत अपनी कलम अमन के गीत लिखो।

छिटका दो चिनगारी सागर के पानी पर
झलरा दो मोती किस्मत की पेशानी पर
पेशानी पर लिख दो इतिहास जमाने का
कुछ असर जिंदगी पर हो नए तराने का
दुनियावालों को नए तराने गाने दो
तुम नए छंद में नए सृजन के गीत लिखो

समिधा सुलगी, श्रृंगार सुलगने वाला है,
रोको मत अपनी कलम अमन के गीत लिखो।

अंगड़ाई लेने को दुनिया अकुलाती है
उपर देखो धरती की आह धुंआती है
इसे मजलूमों की आह न समझो, आंधी है
इस आंधी के पीछे लेनिन है, गांधी है
कुछ नए सितारे आसमान पर चमकेंगे
इस उथल-पुथल में परिवर्तन के गीत लिखो

समिधा सुलगी, श्रृंगार सुलगने वाला है,
रोको मत अपनी कलम अमन के गीत लिखो।

Tuesday, August 25, 2009

मेरे जीवन के साथ बड़ी मजबूरी है ....

मेरे जीवन के साथ बड़ी मजबूरी है,
मैं वीरानों में गीत सुमन के लिखता हूं।

मैं लिखता हूं इसलिए कि मधुबन शरमाए,
मैं लिखता हूं इसलिए कि जीवन दुहराए,
लिखता जाता उत्थान पतन जग-जीवन का
मुझको न तनिक परवाह पपीहा अकुलाए।
धरती के पन्नों पर आंसू की स्याही से-
मैं सुनसानों में गीत नयन के लिखता हूं

मेरे जीवन के साथ बड़ी मजबूरी है,
मैं वीरानों में गीत सुमन के लिखता हूं।

मेरे गीतों का प्राण सुबह का तारा है
गंगा का पानी है झेलम की धारा है
ज्वारों से लिखता गीत समय के धारों पर
गीतों से अम्बर को दिन-रात पुकारा है
गीली मिट्टी से बने दीप की पांती से
मैं बलिदानों में गीत नमन के लिखता हूं

मेरे जीवन के साथ बड़ी मजबूरी है,
मैं वीरानों में गीत सुमन के लिखता हूं।

मेरे गीतों की कड़ी जवानी बन जाए
चिंतन की कोमल घड़ी कहानी बन जाए
हर शब्द-शब्द के साथ कल्पना भी उतरे
हर चरण-चरण जीवन का दानी बन जाए।
चरणों की आकुल-आहट से युग के पथ पर
मैं अभियानों में गीत गमन के लिखता हूं,

मेरे जीवन के साथ बड़ी मजबूरी है,
मैं वीरानों में गीत सुमन के लिखता हूं।

Monday, August 17, 2009

ये सब पब्लिसिटी स्टंट है

15 अगस्त को जब देश आजादी की 63वीं सालगिरह मना रहा था तब अचानक शाहरुख पुराण ने एक साथ पूरे देश की जनता को झकझोर दिया मानो कोई सुनामी आया हो... सारे न्यूज चैनलों पर बड़े-बड़े अक्षरों में ब्रेकिंग न्यूज- शाहरुख के साथ बदसलूकी, किंग खान के साथ अमेरिका में दुर्व्यवहार और न जाने क्या क्या। और हो भी क्यूं न शाहरुख ठहरे देश के सुपर स्टार, नौजवानो के आदर्श। न्यूज चैनलों ने इस खबर को ऐसे परोसा कि जैसे अमेरिका ने अभी माफी नहीं मांगी तो भारत सीधे पेंटागन पर हमला कर देगा और मनमोहन सिंह व्हाइट हाउस को कब्जाने खुद कूच कर जाएंगे। मैं खुद खबरों से खेलने का गवाह हूं इसलिये अच्छी तरह जानता हूं कैसे न्यूज रुम में अफरा-तफरी मची होगी... कौन कैसे चिल्लाया होगा और देखते देखते मनमोहन सिंह के लाल किले के प्राचीर से दिए गए भाषण पर चर्चा करने की बजाए सब शाहरुखमय हो गये होंगे। मैं ब्रेक पर हूं लेकिन चूंकि इन्हीं न्यूज चैनलों का हिस्सा हूं इसलिये आपको बड़ी शिद्दत से बता सकता हूं कि ये खबर जैसे ही न्यूज रूम में टपकी होगी सबकी बांछे खिल गई होंगी क्योंकि उससे पहले सब इसी बात को तरस रहे होंगे कि आखिर आज पंद्रह अगस्त है आजादी की 63वीं सालगिरह.. आज दिखाएं क्या ... दिन भर चलाएँ क्या... प्राइम टाइम में परोसें क्या...आदि-आदि। शाहरुख ने खबरों के लिहाज से शिथिल 15 अगस्त को जान डाल दी। सब तरफ तेरा जलवा ....। शाहरुख के इस कदम को जरा गौर से देखिये .. वो जिस कार्यक्रम में भाग लेने अमेरिका गये थे वहां एक दिन पहले भी जा सकते थे या यूं कहें कि कुछ घंटे पहले भी जाते तो ये बात हिंदुस्तान में 14 की रात को ही हो जाती लेकिन शाहरुख तो शाहरुख ठहरे उन्हें अपने देश की जनता और मीडिया पर पूरा भरोसा है उन्होंने ऐसा दिन चुना जब सारा देश छुट्टियां मना रहा हो और न्यूज चैनलों पर आजादी के परवानों के किस्सों के अलावा परोसने को कुछ न हो। और ठीक ऐसा ही हुआ अचानक एक खबर फ्लैश हुई और देखते देखते ....। शाहरुख कमाल के मैनेजमेंट गुरु हैं... एक तो उन्होंने तारीख चुनी आजादी की सालगिरह जिस दिन देश के निठल्लों में देशभक्ति की भावना हिलोंरे मारने लगती है। और फिर जिस फ्लाइट से वो गये उसमें अपना सामान भी नहीं ले गये (जैसा कि अमेरिकी इमिग्रेशन अधिकारी का कहना है) उनका सामान दूसरी फ्लाइट से आ रहा था लिहाजा उनको जांच के लिये तो रुकना ही था। हकीकत में शाहरुख के साथ क्या हुआ या फिर शाहरुख ने अपने साथ क्या क्या होने दिया ये तो सिर्फ वही बता सकते हैं लेकिन उन्होंने जिस तरह अपनी नई आनेवाली फिल्म “माई नेम इज खान” को प्रमोट किया वो वाकई काबिलेतारीफ है। नेवार्क एयरपोर्ट से जब उन्होंने अपने घर, अपने सेक्रेटरी को फोन किया तो साथ ही अपने कांग्रेसी सांसद मित्र राजीव शुक्ला को फोन करना नहीं भूले, हालांकि राजीव शुक्ला ने उनकी मदद की, एंबेसी में बात की लेकिन अगर गौर से देखें तो शुकला जी को फोन करना भी एक स्ट्रेटजी के तहत था क्योंकि शाहरुख ये बखूबी जानते हैं कि उनपर जो आंच आई है उसे भारतीय न्यूज चैनल खूब भुनाएंगे तो क्यों न खबर ब्रेक करने का सेहरा उनके मित्र के चैनल को मिले जिसके बारे में कहा जाता है कि उसमें शाहरुख ने भी पैसे लगाए हैं। इतना ही नहीं जब ये खबर दावानल की तरह न्यूज चैनलों में फैली तो हर कोई शाहरुख से बात करने की जुगत में लग गया.... लगभग हर चैनल से शाहरुख ने फोन पर बातचीत की और बातचीत में बार बार बोला माइ नेम इज खान , शाहरुख चाहते तो माइ नेम इज शाहरुख खान भी बोल सकते थे। लेकिन उन्होंने यहां भी बड़ी बारीकी से अपने फिल्म को प्रमोट कर दिया। दरअसल ऐसे ही हैं शाहरुख, आज जिस नस्लवाद का सताया हुआ खुद को बताते हुए नहीं अघा रहे वही शाहरुख पिछले महीने मुंबई में इमरान हाशमी को एक सोसाइटी द्वारा घर न दिये जाने के मामले पर इमरान को नसीहत दे रहे थे। अंग्रेजी-हिंदी में खुद इतना फर्क करते हैं कि न कभी मंच पर हिंदी बोलते सुने जाते हैं और न ही जल्दी किसी हिंदी न्यूज चैनल पर इंटरव्यू देते हैं लेकिन ये हिंदी न्यूज चैनल वाले हैं कि शाहरुख को देखा नहीं कि लार टपकाते-दुम हिलाते नजर आते हैं। ये तो थी बात शाहरुख की अब जरा फिल्म इंडस्ट्री और मीडिया को गौर से देखिए। अभी कुछ दिनों पहले ही इससे भयानक हादसा पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के साथ हुआ। खबर चलाई गई, ब्रेकिंग भी चली, संसद में हंगामा भी हुआ, मंत्री प्रफुल्ल पटेल ने एफआईआर दर्ज कराने की बात भी कही लेकिन हुआ क्या । न तो इस घटना के विरोध में बॉलीवुड से कोई मुखर आवाज सामने आई। रसोई से लेकर नासा तक हर मु्द्दे पर अपनी बेबाक राय रखने वाले महेश भट्ट ने भी चुप्पी साध ली। शाहरुख की खबर में लटके-झटके थे , शाहरुख की खबर के साथ दीपिका और प्रियंका चोपड़ा के फोनो चलाए जा सकते थे और ये सारे खेल कलाम की खबर के साथ नहीं हो सकता था लिहाजा वो खबर ठीक से खबर नहीं बन सकी। न्यूज चैनलों के लिए शायद कलाम उतने बड़े मुसलमान नहीं है जैसे शाहरुख हैं क्योंकि शाहरुख बार बार कहते हैं माई नेम इज खान। नेताओं के लिये कलाम के दिल में उतना दर्द नहीं है जितना शाहरुख के लिये है क्योंकि उनके बच्चे कलाम के नहीं शाहरुख ऑटोग्राफ चाहते हैं। कलाकारों की इज्जत होनी चाहिए लेकिन नई पीढ़ी के लिए आदर्श क्या हो इस पर हमें गंभीरता से सोचना होगा, और कलाम ने किस तरह अपनी प्रतिक्रिया दी थी इसका जिक्र इसलिये नहीं करुंगा क्योंकि वो फिर कलाम और शाहरुख की तुलना हो जाएगी और ये गुस्ताखी किसी हिंदुस्तानी को नहीं करनी चाहिए। बाकी ब्रेक के बाद ।

Tuesday, August 4, 2009

रात को ओढ़ लूँ...
रात में खो चलूँ
रौशनी उतार कर
आज खुद से मिलूँ
प्रज्वलित हो चलूँ
आज खुद ही जलूँ
सूर्य बन कर उगूँ
आभा बन कर जगूँ
भस्म गर हो गई
बीज बन कर जियुँ
अंकुरित हो सकूँ
जिन्दगी बन सकूँ
स्वर के लय पर
शब्द के आशय में...
स्नेह के अहसास में….
सोच के पँख पर….
एक तरंग बन सकूँ
एक सदिश की तरह
चल सकूँ...
छू सकूँ
आज मैं...
काश मैं...
मैं बन सकूँ

Monday, August 3, 2009





जयंती की जय हो

हम जिस जयंती की जय-जयकार कर रहे हैं उसे आपलोग नहीं जानते होंगे। लेकिन हमें यकीन है कि जब आप जानेंगे तो आप भी हमारे सुर में सुर मिलाएंगे। उपर वाला भी क्या क्या रंग दिखाता है ? हमारी आपकी सबकी हकीकत जानने के लिये अलग अलग तरीके अपनाता है। चलिए आपको उलझाते नहीं हैं बता देते हैं ... जयंती महज 3 महीने की है और उसके दिल में छेद है....... उसके माता पिता इस हैसियत में नहीं है कि उसका इलाज करा सकें.... जयंती ऐसी कि आप देखें तो आपका दिल भर आए..... जी कलेजे से चिपकाने को हो, हर संभव प्रयास करने के बाद भी उनकी उम्मीद टूटती जा रही है लेकिन उपरवाला निर्दयी नहीं है..... भूले भटके जयंती के पिता की मुलाकात इंडिय़ा न्यूज चैनल के उर्जावान रिपार्टर विजयलक्ष्मी से हो जाती है और फिर धीरे-धीरे सबकुछ बदलने लगता है .. वो रिपोर्टर इस बच्ची की मदद हर कीमत पर करने की ठान लेती है.... एक रिपोर्ट फाइल करती है और चैनल कई घंटो तक इस बच्ची के माता पिता को स्टूडियो बिठाकर लोगों से इसकी मदद की गुहार लगाता है..... जयंती के माता -पिता की उम्मीदें जगती हैं.... रिपोर्टर देश के सबसे बड़े अस्पताल एम्स में अपने संबंधों से बातचीत करती है और वहां के डॉक्टर हर संभव मदद और रियायत की बात भी करते हैं लेकिन अब भी जयंती को सत्तर हजार रुपये की जरुरत है... न्यूज चैनल पर जिस दिन खबर दिखाई गई थी उस दिन कई लोगों ने मदद करने का आश्वासन दिया लेकिन अभी तक कोई सामने नहीं आया है .... जयंती के माता पिता की उम्मीदें फिर टूटने लगती है क्योंकि डॉक्टर जल्द से जल्द ऑपरेशन की बात कर रहे हैं......। इसी बीच एक 'भोर' नाम की एक संस्था जयंती को जीवनदान देने आती है । इस ट्रस्ट के लोगों ने भी चैनल पर खबर देखी है औऱ उसकी मदद करने की सोची है.... भोर ट्रस्ट के जरिए एम्स को पच्चीस - पच्चीस के दो चेक दिए जाते हैं यानी कुल पचास हजार और फिर जयंती को एम्स में भर्ती कर लिया जाता है ।

आज जयंती आइसीयू से बाहर आ गई है... उसका ऑपरेशन सफल रहा है ... डॉक्टर भी खुश हैं..... माता-पिता की कल्पना तो आप खुद कर सकते हैं... साथ ही भोर ट्रस्ट के कुछ अधिकारी फिर अस्पताल आए हैं उनके चेहरे पर भी संतोष है और सबसे ज्यादा खुश है वो रिपोर्टर जिसकी मेहनत से इस नन्हीं जान की जान बची है .... आज इस भागमभाग में भी कुछ लोगों को दूसरों की चिंता है ..... इन सबको साधुवाद ।

Sunday, August 2, 2009

कोई फर्क नहीं पड़ता !

फर्क बस इतना था कि चीरहरण हस्तिनापुर में नहीं पाटलिपुत्र में हुआ । फर्क बस इतना था कि पांडव कौरवों के साथ थे। राहगीर सभासद की भूमिका में थे और मौन थे। न कोई शकुनी था और न कुछ दांव पर लगा था ? न कौरवों का अपमान हुआ था न कोई न कोई द्रौपदी थी और न कोई दुर्योधन, फिर भी पाटलिपुत्र की सड़कों पर चीरहरण हुआ। स्टेट कैपिटल से कैपिटल स्टेट तक बहस जारी है। चीरहरण पर सियासी महाभारत छिड़ गया

संस्कार, संस्कृति , सामाजिक मर्यादा और नैतिकता से भरे बयानों का सिलसिला जारी है । पीड़ित लड़की के बयान दर्ज किए जा रहे हैं। कड़ी कार्रवाई होगी। दोषियों को बख्शा नहीं जायेगा।सरकारी भोंपू सभ्य़ और सुसंस्कृत नागरिकों को लगातार भरोसा दिला रहा है। पुलिस हरकत में है और अदालत अपराधियों को सजा सुनाने के लिए तत्पर। न्याय होगा।
कुछ पकड़े जायेंगे, कुछ बच निकलेंगे। कुछ को सजा मिलेगी, कुछ बाइज्जत बरी कर दिये जायेंगे, लेकिन जूही के जिस्म से कपड़ा जिस तरह नोचा गया, सरेआम उसे जिस तरह खसोटा गया, वो सिलसिला कभी रूकेगा? सड़क पर उसके कपड़े एक बार नोचे गए। पुलिसिया जांच और पूछताछ के दौरान भी यही सब दोहराया जाएगा। जूही को बार बार नोचा जाएगा, क्योंकि होटल के कमरे से निकलकर सड़क पर निर्वस्त्र जूही अब देश की हर गली, गांव और कस्बे में पहुंच गई है। चाय और पान की दुकानों पर बहस इस बात पर नहीं हो रही है...न्याय कब होगा? दोषियों को सजा कब सुनाई जाएगी और कब मुख्यमंत्री इस बात की घोषणा करेंगे कि चीरहरण करने वाले सलाखों के पीछे हैं। अब नहीं होगा किसी का सरेआम चीरहरण। बहस इस बात पर हो रही है कि जूही सिंदूर बेचती थी या शरीर। किसी राकेश के कहने पर वो किसी के साथ होटल के कमरे में क्यों पहुंच गई। और किस तरह से वो शोहदों के बीच फंस गई। उसके कुछ तो किया होगा, कुछ तो उसका भी कसूर होगा। भला एक हाथ से ताली कैसे बज सकती है ? इस तरह के एक नहीं बल्कि कई सवाल हैं जो उन लोगों के मन को भी मथ रहे हैं, जो सामाजिक नैतिकता और मर्यादा के नाम पर उन तमाम राकेश सिंहों को हजार हजार लानतें भेज रहे हैं। लेकिन यकीन मानिए ये वही लोग हैं जो रात के अंधेरे में ऐसी खुशबुओं के जिस्म पर लार टपकाते हैं। इनमें से बहुत सारे लोग तमाशबीन की तरह चीरहरण देखते रहे। पाटलीपुत्र की सड़क पर एक हाथ नहीं उठा बचाने को। बिहार की राजधानी में चादर का एक टुकड़ा नहीं मिला जूही की तार तार आबरू को ढकने को। पाटलीपुत्र में वस्त्र की नहीं ईमान की कमी है। चारों तरफ से नुचती हुई जूही को देखकर तमाशबीनों की आंखों में खोट आ गया। इसलिए उन तमाशबीनों की शर्म से गर्दन नहीं झुकी और न उसे बचाने को कोई हाथ उठा। तमाशबीनों की आंखों में जूही की जवानी चुभ गई। इसलिए उसके अधनंगे शरीर को ढकने के लिए वस्त्र का कोई टुकड़ा नहीं मिला, और जिनको इस सबसे कोई सरोकार नहीं था उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ा। आखिर किसी बात से किसी को क्यों कोई फर्क नहीं पड़ता? लोग क्यों ये सब एक तमाशबीन की तरह देखते रह गए? क्या पाटलीपुत्र की सड़क पर जूही के साथ जो कुछ हुआ वो कोई नौटंकी का खेल था? लेकिन हकीकत यही है कि पाटलीपुत्र में अब किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता और वैसे भी वो तो पतुरिया है, जो अपने जिस्म का कारोबार करती है। और जो होता है वो अच्छे के लिए हीं होता है। उसकी किस्मत में जो बदा था वही उसके साथ हुआ। इस लफड़े में फंसना किसी शरीफ का काम नहीं है क्योंकि....

सबको फिक्र है
कि बीच में कैसे भी न फंसे उसकी चौकी
कि उस पर ही जीते जायेंगे सारे गढ
सारी तलवारें वहीं चमकेंगी
पुलिस के बूटों का वहीं होगा गश्त
वहीं पर लूटे जायेंगे राहगीर
बीच में कोई नहीं फंसना
चाहता है
हर कोई चाहता है किनारे से
देखना, नौटंकी का खेल

कहां से शुरु करूं, कैसे शुरु करूं समझ में नहीं आता... तुम्हारे बारे में सब अपनी व्यथा शब्दों में उकेर रहे हैं, लेकिन तुम्हारे बारे में लिखना और ये सोचकर लिखना कि तुम अब नहीं हो चाहकर भी नहीं हो पा रहा है फिर भी मैं चाहता हूं कि अब जब तुम नहीं हो तुम्हारे बारे में कुछ लोग मेरे जरिए भी जाने....या यूं कहूं कि लोग तुम्हारे जरिए मुझे भी जानें.... मेरे अभिन्न भी ये जाने कि तुम मेरे लिए क्या थे.... लोग ये जाने कि मुझे कितना आश्चर्य हुआ था जब तुमने ये बताया था कि तुम मुझसे उम्र में सालों बड़े हो क्योंकि तुम्हें देखकर तो ऐसा अहसास बिल्कुल नहीं होता था। और यही वजह है कि में अपने से छोटा समझ तुम्हें - तुम कहने लगा था और फिर ये आदत बनी रह गई... चाहकर भी तुम, आप में तब्दील नहीं हो पाया और होती भी कैसे रिश्तों में तुम की गर्मी- आप में कहां। याद है शैलेंद्र तुमने मुझे कैसे लगे लगाया था जब मैंने कहा था कि मैं एक शैलेंद्र सिंह को जानता हूं जो जिंदगी को जानने का दावा करते हैं... तुमने पूछा कैसे तो मेरा जवाब था उनकी किताब के जरिए, तुमने तड़ से सवाल दागा मिले हो कभी.. मैंने बोला नहीं लेकिन मैं तुम्हें सुनाता हूं उनकी चार पंक्तियां-

आप भी पढ़िए

जिंदगी... निर्दोष तो कल की तरह मैं आज भी हूं

इस अधर से निकालो तो संभवत कल भी रहूंगा

जानता हूं जिंदगी...निर्दोष होना सबसे बड़ा दोष है

पर मैं क्या करूं मेरी तो नियति ही यही है

फिर मैंने बोला था किसी को जानने के लिए उसकी लेखनी को जानिये सब जान जाएंगे तुमने मुझे गले लगाया तब मुझे एहसास हुआ कि पिछले छ महीने से हम इतने करीब क्यों आए- तुम्हारी जानता हूं जिंदगी इसकी एक कड़ी थी। शैलेंद्र की पहली किताब जानता हूं जिंदगी- दरियागंज के संडे मार्केट से मैंने 1996 में खरीदी थी, लेकिन भाई से पहली मुलाकात उसके तीन साल बाद हुई। सच कहूं शैलेंद्र तुम जिंदगी के बारे में कुछ नहीं जानते थे सिर्फ जानने का दावा करते थे, अगर जानते होते तो जाने के लिए इतनी जल्दी नहीं करते- जैसे- जैसे जिम्मेदारी बढ़ रही थी वैसे वैसे तुम नाबालिग हो रहे थे.। जब कभी हम साथ होते तुम खिलंदड़पन से बाज नहीं आते... भाभी की मौजूदगी में किसी अनजान से भी फ्लर्ट करना नहीं भूलते... और ये सब मुझे जब अच्छा नहीं लगता तो तुम्हारा एक ही डॉयलॉग गीता पढ़ो--- वैसे भी हमारी-तुम्हारी मुलाकात के पहले छ महीने तक मुझे कम पढ़ा लिखा टीवी का पत्रकार समझते रहे--- धीरे धीरे जब मैं तुमसे कविता की भाषा में बात करता तो तुम मुझे अपने करीब पाते..... तुम बेचैन रहते थे.... कम समय में बहुत कुछ करना चाहते थे.. और यही बेचैनी मुझमें देख तुम्हें थोड़ी संतुष्टि भी मिलती। आज मैं ये कह सकता हूं कि तुम्हें जानने का दावा कोई चाहे कितना भी करे लेकिन जान नहीं पाया..। अभी तो एक हफ्ता भी नहीं बीता था..जब तुमने ये कहा था बड़े न्यूज डायरेक्टर हो गये हो, मिलने की फुर्सत नहीं है फोन करने का टाइम नहीं है ..... सुधर जाओ नहीं तो बहुत मारुंगा..... मैंने कहा कुछ तो इज्जत करो यार- मेरा बेटा चार साल का हो गया है... मुझे वो इज्जत नहीं चाहिए.... मैं मार खाने को तैयार हूं क्या तुम आओगे, नहीं न तुम झूठे निकले.... पिछले कुछ महीनों से सिर्फ ऐसी ही बात करने के लिए मुझे फोन करते थे ...... क्योंकि शायद ये बातें तुम सिर्फ मुझे ही कह पाते थे क्योंकि मैं तुम्हें इस हद तक बर्दाश्त करता था। तुम मुझपे इतना हक भी जताते थे लेकिन मेरी सुनते बहुत कम थे.....। इसी संडे को मिलने का वादा किया था तुमने.....लेकिन इस बार भी मेरी नहीं सुनी । तुम सुनना ही नहीं चाहते थे । तुमने सिर्फ अपनी करने की ठानी थी। ये जिद किसी को अच्छी नहीं लगी शैलेंद्र न तुम्हारे दोस्तों को न ही तुम्हारे विरोधियों को । अपनी हरकतों से हमारी रात काली करते और सुबह चाय पर हमारा गुस्सा भी झेलते और बड़े सहज होकर जब तुम ये कहते दोबारा ऐसा नहीं होगा तो मैं मन ही मन सोचता था कब तुमसे बदला लूं ऐसे ही सारी रात परेशान करके।

मैं जब आजतक में नौकरी करता था तो साउथ दिल्ली में रहता था और भविष्य में भी उधर ही रहने की सोचता था लेकिन तुम मुझे अपने पास लेकर आए। तुम्हारी ही जिजिविषा थी कि मैंने 24 साल की उम्र में घर खरीदा...... मुझे लगता है कि पिछले जन्म में तुमपर मेरा कुछ उधार था जो इस जन्म में न सिर्फ तुमने सूद समेत चुकाया बल्कि कुछ नया कर्ज चढ़ा गए, जो शायद ही मैं उतार पाउं। न तो तुम हमें अपने करीब लाते... न मेरी आँखों से वो (वो की कहानी फिर कभी) पर्दा हटाते जिसकी आड़ में मैं अपने पिछले कई सालों से जिए जा रहा था और न मैं जिन्दगी की इस राह पर चलता...जिसमें मेरे साथ कदम मिलाकर चलने वाली पत्नी और बहुत प्यार करने वाला बेटा मिला...। मेरी जिद और मेरी कुछ गलतियों से मुझे पांच साल बाद ही अपना घर बेचना पड़ा तुम भी काफी दुखी हुए लेकिन हमेशा हौसला देते रहे...। आज जब मैं फिर अपने घर में रह रहा हूं तुम साथ छोड़ गये। तुम्हें याद है शैलेंद्र जब मुझे...मुझे(मैं अपने आपको दुनिया का सबसे निडर आदमी मानता हूं) अपने घर में नींद नहीं आती थी.... अकेले डर लगता था...मुझे जबरदस्ती अपने घर में सुलाते ... क्या-क्या कहूं शैलेंद्र और किससे कहूं, तुम्हें तो कोई फर्क पड़ता नहीं उपर से मजे ले रहे होगे... आपलोगों को बताऊं अभी शैलेंद्र क्या कहतासब गदहे हैं और तुम घोड़ा हो...सुधर जाओ...

क्या क्या लिखूं... कहां खत्म करूं समझ नहीं आता, शैलेंद्र ... छोड़ो यार ..... ।



भाई शैलेंद्र की याद में उन्हीं की कविताओं के जरिए हमारे एक वरिष्ठ सहयोगी अगस्त्य अरुणाचल ने अपने दिल की बात कही है, Italic पंक्तियां शैलेंन्द्र की है और उस कविता को अपनी व्यथा से बढ़ाया है अगस्त्य जी ने


जिंदगी..ये कैसा मुकाम है
ये कहां आकर तुम ठहर गई हो
क्या आगे बढ़ना सचमुच ही दुष्कर है
तो पीछे ही लौट पड़ो
क्योंकि मुझे याद है..
पिछले कुछ पलों में राहत मिली थी
हां जिंदगी.. पीछे ही लौट पड़ो

काश कि ज़िंदगी लौट पड़ती...
काश कि वक्त का पहिया पीछे चल देता...
एक बार... सिर्फ एक बार....
फिर तुम इस कविता को आगे बढ़ाते..
जिंदगी से कुछ और बतियाते...
संजीदगी से धर्म का मर्म बताते..

इस मध्य में तो दिखती नहीं कोई मुक्ति
वो तो बुद्ध ही थे जो चुन लिए मध्यपथ
मुझसे तो कुछ भी होता नहीं वैसा
जिंदगी... निर्दोष तो कल की तरह मैं आज भी हूं

क्यों अपना लिया इतना दर्द...
हां... मां-पापा का उठ गया था साया..
लेकिन दीदी ने तो तुम्हें प्यार दिया था
दर्द बन गई लेखनी की स्याही
फिर - 'जानता हूं जिंदगी'..
तुम्हारी कविता संग्रह आई
फिर भी तुम्हें कहां था चैन
लेखनी में स्याही थी बाकी
'कुछ छूट गया है”- तुमने लिख डाली
तब जहां ने तुमको जाना
दिल के दर्द को कुछ पहचाना
निदा फ़ाज़ली को कहना पड़ा था
इतनी कम उम्र में इतना दर्द..
हमने अपने जीवन में नहीं देखा
हां..जिंदगी को जीना तुमने सिखलाया
यारों को यारी तुमने समझाया
अब तुम कहां चले गए हो
सबकी संगत छोड़ गए हो...
देखो जिंदगी तुम्हें करती है याद
दोहराती है तुम्हारी दरख्वास्त

हां जिंदगी बोलो ...
ये कौन सा मुकाम है
मुझे यहां से कहीं ले चलो
सिर्फ एक एहसान कर दो
मेरी संवेदना मुझे लौटा दो
एक लेखक होने की इतनी सजा है
तुम्हारी कसम...
अब कभी मैं लिखूंगा कुछ भी नहीं
मां को चिट्ठी भी नहीं...
पापा को पत्र भी नहीं
दीदी को हां..हां...
उसे भी नहीं
पर मेरी भावना मेरी संवेदना मुझे लौटा दो

तुम्हारी लेखनी में स्याही है बाकी
देखो .. बेटा तकता है राह तुम्हारी
बिटिया का कुछ तो ख्याल करो
एक बार वापस लौट कर आ जाओ
लेकिन तुम तो कुछ सुनते ही नहीं
यार तो यार, दीदी की भी नहीं..
इतनी दूर तुम चले गए हो
दर्द का भंवर छोड़ गए हो
अब भी जिंदगी करती है याद तुम्हें
हम सबका आखिरी सलाम तुम्हें।

अगस्त्य अरुणाचल
एसोसिएट एक्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर
इंडिया न्यूज

तब लगता है ठगा गया हूँ मैं जीवन के लेन देन में,

जब अयोग्य जुगनू सूरज के सिंहासन पर दिखता है,
जब खोटा पत्थर का टुकड़ा कनक कणी सा बिकता है,
जब शब्दों का मोल आँकने वाला मापक बहरा है,
जब असत्य परपंच अनर्गल संभाषण ही टिकता है,
मिलता है सम्मान उसी संभाषण को श्लोकों सा,
तब लगता है ठगा गया हूँ मैं जीवन के लेन देन में,

मैंने पहचाना फूलों को गंधों के व्याकरणों से,
और बाग को पहचाना है माली के आचरणों से,
बगिया की शोभा है रंग बिरंगो फूलों की क्यारी,
एक रंग के फूलों को जब अलग निकाला जाता है,
सिर्फ उन्हें जब राजकुमारों जैसे पाला जाता है,
तब लगता है ठगा गया हूँ मैं जीवन के लेन देन में,

मेरे नियम ग़लत थे जो मैं मानवता का हामी था,
सत्य बोलने को प्रस्तुत था भोलापन अनुगामी था,
अपने साथी के सिर पर मैं पाँव नहीं धर सकता था,
लाभ हानि की खातिर झूठी बात नहीं कर सकता था,
आज खेल में जब शकुनि के पासे रंग दिखाते हैं,
तब लगता है ठगा गया हूँ मैं जीवन के लेन देन में,

जब पुस्तक की शोभा भर होती हों समता की बातें,
झूम नशे में जब मेहनत का मोल लगाती हों रातें,
आदर्शों के मूल धंसे हों येन केन और प्रकारेन में,
तब लगता है ठगा गया हूँ मैं जीवन के लेन देन में.

मंच पर अंधेरा

अचानक रंगमंच का पुरोधा हमें खाली हाथ छोड़ गया। भोपाल में 8 जून को सूरज के उगने के पहले ही रंगमंच पर अँधेरा छा गया... और चरणदास चोर का कांस्टेबल अँधेरे में हमेशा के लिये गुम हो गया....जिसे देखने के लिये उमड़ी भीड़ को देख किसी रैली का अहसास होता था.... मिट्टी की वो गाड़ी मिट्टी में मिल गई जिसे हबीब अहमद खान ने बनाया था .... जी हां तनवीर साहब का असली नाम यही था... तनवीर के नाम से तो वो अखबारों में लिखा करते थे जिसे बाद में उन्होंने अपने नाम के साथ जोड़ लिया। और एक वक्त आया जब हबीब तनवीर थियेटर के पर्याय बन गये। तनवीर ने थियेटर की दुनिया में उस वक्त कदम रखा था जब थिएटर के अंत की चर्चा जोरों पर थी. लेकिन उनकी जिद ने थियेटर को फिर अमर कर दिया।

1923 में रायपुर में जन्मे हबीब तनवीर एक नाटककार ही नहीं बल्कि बेहतर कवि, अभिनेता और निर्देशक भी थे...लेकिन इस जिद्दी इंसान का मन न तो पोलैंड में रमा था और न ही मुंबई में जमा, कुछ दिनों तक ऑल इंडिया रेडियो में नौकरी भी की लेकिन भारतीय जन नाट्य मंच से जुड़ने के बाद वे रंगमंच के होकर रह गए। छत्तीसगढ़ के लोक कलाकार और वहां का लोक जीवन उनके अंदर रचा बसा था। इसी लोक जीवन के रंग बिरंगे रुप को वे जीवन भर मंच पर रचते रहे। आगरा बाजार हो या चरणदास चोर, मिट्टी की गाड़ी हो या शतरंज के मोहरे, बहादुर कलारिन हो या पोंगा पंडित हर नाटक में लोक जीवन के रंग हबीब ने इस अँदाज में भरे कि परंपरागत भारतीय थियेटर की पूरी तस्वीर ही बदल गई। तनवीर लोक जीवन ही नहीं लोक कलाकार की अंतरराष्ट्रीय पहचान बन गए। सम्मान और पुरस्कार की चकाचौंध में हबीब कभी शामिल नहीं हुए .... दरअसल हबीब को पुरस्कार उस अवार्ड को सम्मान है.... 1982 में चरणदास चोर को एडिनबर्ग में जब फ्रिंग फर्स्ट अवार्ड से नवाजा गया तब वहां स्टेज पर ये बातें किसी ने कही थी। तनवीर साहब को 1983 में पद्म श्री और 2002 में पद्म विभूषण मिला। 1996 में उन्हें संगीत नाटक अकादमी से भी सम्मानित किया गया। हबीब तनवीर 1972 से 1978 तक राज्यसभा के मनोनीत सदस्य भी रहे। तनवीर साहब एक ऐसा मंच सिरजना चाहते थे जिसका पर्दा कभी गिरे नहीं....लेकिन लंबी बीमारी ने भारतीय रंगमंच के उस पर्दे को गिरा दिया जिसके उस पार रह गए हबीब तनवीर। तनवीर साहब को मैं ज्यादा जानने का दावा तो नहीं कर सकता लेकिन मैं जितना जानता था ये जरूर कह सकता हूं कि जितनी शिद्दत से वो लोगों को ईद-मुबारक देते थे उतने ही मस्त होकर होली मनाते थे... खुश होकर दीवाली पर दिए जलाते थे । एक मुस्लिम परिवार में पैदा होने के बाद भी उन्होंने हिंदू लड़की मोनिका मिश्रा से शादी की और फिर जीवन रंगमंच और मोनिका जी के बीच ही बीत गया। दरअसल उन्होंने कभी अपने-आपको धर्म के बंधन में बंधने नहीं दिया। 94-95 की बात है हबीब साहब एनएसडी में अपनी टीम के साथ चरणदास चोर की प्रस्तुति के लिए आए थे। उस वक्त 70-72 साल की उनकी उम्र रही होगी.. और जिस कदर वो कांस्टेबल के किरदार में मंच पर दौड़ लगाते थे उसे देखने वाला देखता रह जाता... उन्हीं दिनों श्रीराम सेंटर में हमारे निर्देशन में मनोज मित्र के नाटक बगिया बांछाराम की का मंचन हो रहा था, मैंने उस नाटक के मुख्य किरदार हबीब साहब जैसी फुर्ती लाने को कहा, हमारा प्रयोग काफी सराहा गया और फिर हमारे काफी आग्रह पर हबीब साहब उस नाटक का एक शो देखने पहुंचे। थिएटर के इस पुरोधा से हमारा साबका पहली बार पड़ा था। कई साल बाद जब रामगोपाल बजाज ने एनएसडी में भारतीय रंग महोत्सव की शुरुआत की तब हबीब साहब अपने नाटकों के साथ वहां धूम मचाते नजर आए...तब तक मैं भी पूरी तरह टेलीविजन पत्रकारिता में आ चुका था। फिर तो कई मौकों पर उनसे मुलाकात हुई और बेबाक बातें भी। जैसे जैसे तनवीर साहब की उम्र बढ़ती गई.. उनका दिल्ली आना कम होता गया। दो साल पहले जब वो एक थिएटर फेस्टिवल में ज्यूरी के तौर पर आए थे तो उन्हें इस बात की खुशी थी कि उस फेस्टिवल को स्पांसर मिल गया था। थिएटर को स्पांसर मिलना अपने आप में एक इतिहास कायम होना था लेकिन दरअसल वो उस महान शख्स को सलाम था जिसकी जिद ने ये संभव कर दिखाया। हबीब साहब जैसों का ही जज्बा था कि थियेटर आज भी जिंदा है। इस महान शख्सियत के लिए दो शब्द-

आने वाली दुनिया मानव को पूजेगी

इस मिट्टी से कुछ मूरतें गढ़ने दो।

मेरे जीवन के साथ बड़ी मजबूरी है

में वीरानों में गीत सुमन के लिखता हूं

Wednesday, July 29, 2009

कोई फर्क नहीं पड़ता !

फर्क बस इतना था कि चीरहरण हस्तिनापुर में नहीं पाटलिपुत्र में हुआ । फर्क बस इतना था कि पांडव कौरवों के साथ थे। राहगीर सभासद की भूमिका में थे और मौन थे। न कोई शकुनी था और न कुछ दांव पर लगा था ? न कौरवों का अपमान हुआ था न कोई न कोई द्रौपदी थी और न कोई दुर्योधन, फिर भी पाटलिपुत्र की सड़कों पर चीरहरण हुआ। स्टेट कैपिटल से कैपिटल स्टेट तक बहस जारी है। चीरहरण पर सियासी महाभारत छिड़ गया

संस्कार, संस्कृति , सामाजिक मर्यादा और नैतिकता से भरे बयानों का सिलसिला जारी है । पीड़ित लड़की के बयान दर्ज किए जा रहे हैं। कड़ी कार्रवाई होगी। दोषियों को बख्शा नहीं जायेगा।सरकारी भोंपू सभ्य़ और सुसंस्कृत नागरिकों को लगातार भरोसा दिला रहा है। पुलिस हरकत में है और अदालत अपराधियों को सजा सुनाने के लिए तत्पर। न्याय होगा।
कुछ पकड़े जायेंगे, कुछ बच निकलेंगे। कुछ को सजा मिलेगी, कुछ बाइज्जत बरी कर दिये जायेंगे, लेकिन जूही के जिस्म से कपड़ा जिस तरह नोचा गया, सरेआम उसे जिस तरह खसोटा गया, वो सिलसिला कभी रूकेगा? सड़क पर उसके कपड़े एक बार नोचे गए। पुलिसिया जांच और पूछताछ के दौरान भी यही सब दोहराया जाएगा। जूही को बार बार नोचा जाएगा, क्योंकि होटल के कमरे से निकलकर सड़क पर निर्वस्त्र जूही अब देश की हर गली, गांव और कस्बे में पहुंच गई है। चाय और पान की दुकानों पर बहस इस बात पर नहीं हो रही है...न्याय कब होगा? दोषियों को सजा कब सुनाई जाएगी और कब मुख्यमंत्री इस बात की घोषणा करेंगे कि चीरहरण करने वाले सलाखों के पीछे हैं। अब नहीं होगा किसी का सरेआम चीरहरण। बहस इस बात पर हो रही है कि जूही सिंदूर बेचती थी या शरीर। किसी राकेश के कहने पर वो किसी के साथ होटल के कमरे में क्यों पहुंच गई। और किस तरह से वो शोहदों के बीच फंस गई। उसके कुछ तो किया होगा, कुछ तो उसका भी कसूर होगा। भला एक हाथ से ताली कैसे बज सकती है ? इस तरह के एक नहीं बल्कि कई सवाल हैं जो उन लोगों के मन को भी मथ रहे हैं, जो सामाजिक नैतिकता और मर्यादा के नाम पर उन तमाम राकेश सिंहों को हजार हजार लानतें भेज रहे हैं। लेकिन यकीन मानिए ये वही लोग हैं जो रात के अंधेरे में ऐसी खुशबुओं के जिस्म पर लार टपकाते हैं। इनमें से बहुत सारे लोग तमाशबीन की तरह चीरहरण देखते रहे। पाटलीपुत्र की सड़क पर एक हाथ नहीं उठा बचाने को। बिहार की राजधानी में चादर का एक टुकड़ा नहीं मिला जूही की तार तार आबरू को ढकने को। पाटलीपुत्र में वस्त्र की नहीं ईमान की कमी है। चारों तरफ से नुचती हुई जूही को देखकर तमाशबीनों की आंखों में खोट आ गया। इसलिए उन तमाशबीनों की शर्म से गर्दन नहीं झुकी और न उसे बचाने को कोई हाथ उठा। तमाशबीनों की आंखों में जूही की जवानी चुभ गई। इसलिए उसके अधनंगे शरीर को ढकने के लिए वस्त्र का कोई टुकड़ा नहीं मिला, और जिनको इस सबसे कोई सरोकार नहीं था उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ा। आखिर किसी बात से किसी को क्यों कोई फर्क नहीं पड़ता? लोग क्यों ये सब एक तमाशबीन की तरह देखते रह गए? क्या पाटलीपुत्र की सड़क पर जूही के साथ जो कुछ हुआ वो कोई नौटंकी का खेल था? लेकिन हकीकत यही है कि पाटलीपुत्र में अब किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता और वैसे भी वो तो पतुरिया है, जो अपने जिस्म का कारोबार करती है। और जो होता है वो अच्छे के लिए हीं होता है। उसकी किस्मत में जो बदा था वही उसके साथ हुआ। इस लफड़े में फंसना किसी शरीफ का काम नहीं है क्योंकि....

सबको फिक्र है
कि बीच में कैसे भी न फंसे उसकी चौकी
कि उस पर ही जीते जायेंगे सारे गढ
सारी तलवारें वहीं चमकेंगी
पुलिस के बूटों का वहीं होगा गश्त
वहीं पर लूटे जायेंगे राहगीर
बीच में कोई नहीं फंसना
चाहता है
हर कोई चाहता है किनारे से
देखना, नौटंकी का खेल

Tuesday, July 28, 2009

तब लगता है ठगा गया हूं मैं जीवन के लेन देन में

जब अयोग्य जुगनू सूरज के सिंहासन पर दिखता है
जब खोटा पत्थर का टुकड़ा कनक कणी सा बिकता है