Saturday, October 3, 2009

बापू


बापू की जयंती पर अपने ब्लॉग के पाठकों को एक छोटी सी भेंट... यह विचार मेरे मन में आज से सत्रह साल पहले आये थे जब मैं दिल्ली विश्वविद्यालय का छात्र था।

बापू !
अच्छा हुआ तुम स्वर्गीय हुए,
मरकर स्मरणीय हुए
अगर तुम जिंदा होते
न जाने कितना शर्मिंदा होते
देश की हालत देख रोए होते,
कितना कुछ ढोए होते,
अपनों के विरुद्ध अबतक
अनशन पर प्राण खोए होते
वियावान जंगलों से गुजर रही थी
देश की गाड़ी
उसे तो तुमने बचा लिया
जालिम लुटेरों से
पर--
शहर के बीच आकर
आखिर लूट ही ली गई
अपने ही सवारियों से
आजादी की गाड़ी

आप बताएं क्या देश के हालात पिछले सत्रह सालों में सुधरे हैं.. क्या हम बापू को सच्ची श्रद्धांजलि दे पा रहे हैं।

Monday, September 28, 2009

पत्रकारिता को खिलवाड़ मत बनाओ

जंग और प्यार में सब जायज है यह साबित कर दिया इस बार बंगाल पुलिस ने... बंगाल पुलिस की कारगुजारी आजकल सुर्खियों में है ... एक नक्सली नेता की गिरफ्तारी हो चुकी है और पुलिस इसे अपनी बड़ी सफलता मान कर अपनी पीठ थपथपा रही है। जाहिर है जिस एक शख्स ने लालगढ़ में हफ्तों राज्य की पुलिस को और देश की प्रशासनिक व्यवस्था को चुनौती दी हो उसकी गिरफ्तारी पर खुश होना लाजमी है... लेकिन सवाल उठता है कि जिस तरीके से पत्रकारिता को मोहरा बनाकर इस कारनामे को अंजाम दिया गया है वो ठीक है....और उपर से मीडियाघरानों की चुप्पी, बड़े पत्रकार होने का दावा करने वालों की खामोशी आखिर किस तरफ इशारा करती है।
छत्रधर महतो और बंगाल पुलिस के इस नाटक पर कुछ लिखूं उससे पहले मैं बता देना चाहता हूं कि मैं मौजूदा हालात में नक्सलवाद का समर्थक नहीं हूं लेकिन अपने पाठकों को ये भी साफ करता चलूं इन नक्सलियों के बीच हमने एक बार नहीं ... कई बार हफ्तों दिन गुजारा है..... इनके साथ जंगलों की खाक छानी है .... जंगलों में जानवरों और नक्सलियों के बीच सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा की है.... इसलिये मैं अपने अल्पज्ञान से इनको काफी करीब से देखा है और इनकी बुराइयों पर जमकर लिखा भी है। पत्रकारिता से इतर बिहार के कुछ जिलों में नक्सलवाद को पनपते हमने काफी करीब से देखा है जाना है, समानता की इनकी बातें हमें अपील करती रही है लेकिन बेवजह हत्याओँ को मैं विरोधी रहा हूं। महीनों इनके साथ बिताने के बाद हमें लगा कानू सान्याल और चारू मजूमदार का मिशन रास्ते में भटक गया है.... जहां शराब और लड़की के सिवा कुछ नहीं बचा और एक दौरे से आने के बाद मैंने लिखा कि ये विस्फोट करते हैं माओ के नाम पर, अवैध वसूली करते हैं लेनिन के नाम पर और हत्याएं करते हैं मार्क्स के नाम पर बावजूद इसके इनमें संभावनाएं हैं और सरकारी नीतियों के लचीलेपन की वजह से यह देश के लिए बाहरी आतंकवाद से बड़ा खतरा है। लेकिन यहां जरा गौर से समझने की बात है नक्सलवाद एक विचार है और विचार से छेड़छाड़ खतरनाक हो गया है... लेकिन जिस विचार को लेकर छत्रधर महतो ने लड़ाई शुरु की उसपर सरकार को गौर करने की जरुरत थी।
हम लौटते हैं अपने मुद्दे पर नहीं तो यह एक ऐसा विषय है जिसपर काफी कुछ लिखा जा सकता है। मुद्दा यह कि जिस तरीके से पुलिस ने पत्रकार का सहारा लिया क्या वो तरीका ठीक है। यहां कई बाते हैं..... मैं सबसे पहले उन पत्रकारों को कठघरे में खड़ा करता हूं जिनके बारे में कहा जा रहा है कि विदेशी एजेंसी के पत्रकार बने पुलिसवालों से महतो की मीटिंग तय कराई। क्या ये जानबूझकर था, इसपर मेरा ये मानना है कि ऐसा संभव नहीं है क्योंकि स्थानीय स्तर का काई पत्रकार ऐसा जोखिम नहीं ले सकता क्योंकि वो इतना जो जानता है कि अपनी पंचायत लगाकर कान काटने, उंगली काटने या फिर कई दिन उल्टा लटकाने के फैसले करने वाले ये लोग गद्दारी को कभी माफ नहीं करेंगे... हां लेकिन उस पत्रकार की एक गलती जरुर है कि उसने चंद पैसों के लालच में बिना ज्यादा जांच पड़ताल किये इन नकली एजेँसी के पत्रकारों पर भरोसा कर लिया और उनका ऐसा करना भी कई सवाल खड़े करता है... यहां भी बात समानता की आती है कि जिस स्ट्रिंगर की खबरों के सहारे न्यूज चैनल या राष्ट्रीय अखबार बड़े-बड़े खेल कर रहे हैं उन्हें चंद पैसों के लिये क्या करना पड़ता है मतलब साफ है कि इस पेशे में भी समानता नहीं है और अगर समानता की वकालत करता छत्रधर महतो अपनी लड़ाई लड़ रहा है तो क्या बुरा कर रहा है। अगर वो स्थानीय पत्रकार संपन्न होता तो उसे ऐसे काम करने की जरुरत नहीं पड़ती और फिर भी करता तो उसे ठोक बजाकर करता। दूसरी बात इन पुलिस वालों की .. आप सोचिए अगर किसी खबर का सच जानने के लिए अगर आप पुलिस की वर्दी पहन लें और बकायदा रिवॉल्वर लगाकर कहीं पहुंच जाएं.... तो क्या हमारे देश का कानून हमें ऐसा करने की इजाजत देगा, कतई नहीं... तो फिर एक दूसरे पेशे को हथियार के रुप में आजमाने के लिये पुलिसवाले दोषी क्यों नहीं है। दशकों से पत्रकार वहां पहुंचते रहे हैं जहां पुलिस-प्रशासन का जाना दूभर रहा है और वो सिर्फ इसलिये कि इस पेशे पर तमाम बुराईयों के बावजूद हर तबका भरोसा करता रहा है। ऐसे में नकली पत्रकार बनकर ऐसा करना न सिर्फ पत्रकारिता के साथ धोखा है बल्कि समाज के साथ भी सौतेला व्यवहार है क्योंकि ऐसी घटनाएं बार-बार दुहराई जाएंगी.... और फिर समाज के उस तबके का विश्वास हमसे उठेगा जो सामने नहीं आना चाहता लेकिन पत्रकार उनकी बातें मुख्यधारा तक पहुंचाते हैं। इसके दूरगामी परिणाम बहुत ही भयानक होंगे क्योंकि जब समाज का कोई भी एक या उससे अधिक हिस्सा मुख्यधारा से कटेगा और उसके संवाद भी स्थापित नहीं होगा तो जाहिर है विवाद होगा क्योंकि – जहां संवाद नहीं है वहीं विवाद शुरु होता है। और फिर न तो किसी छत्रधर महतो को हम, आप या पुलिसवाले जान पाएँगे और न हीं ऐसी गिरफ्तारी हो सकेगी। कुल मिलाकर बंगाल पुलिस का ये कदम उस आतंकवादी से ज्यादा बेहतर नहीं है जिसने पत्रकार के वेश में वीडियो कैमरे में बम लगाकर अफगानिस्तान लोकप्रिय नेता अहमद शाह मसूद की हत्या कर दी थी। और इन सबसे ज्यादा चिंताजनक बात यह है कि इस मसले पर कोई कुछ बोल नहीं रहा.... ये खामोशी पत्रकारिता के लिए और खासकर खोजी पत्रकारिता के लिए जहां सूत्र काफी मायने रखते हैं ... बेहद खतरनाक है।

Tuesday, September 1, 2009

मतभेद सही मनभेद न हो

कई दिनों से सोच रहा हूं कि कुछ लिखूं, लेकिन लिख नहीं पा रहा हूं क्योंकि काफी समय बाद रोज-रोज के काम से ब्रेक लिया है तो उसका भरपूर आनंद ले रहा हूं...... पर कुछ भाइयों ने आज लिखने पर मजबूर किया... खैर.... आज जिस मुद्दे की बात करना चाहता हूं उस पर सीधे आने की बजाए आप लोगों को एक छोटा सा किस्सा सुनाना चाहता हूं......
एक गांव में एक सज्जन ने कुछ किताबें पढ़ ली, थोड़ी बहुत दूसरी भाषाएं भी सीख ली और रोज गांव वालों को उपदेश देने लगे....और गांव वाले भी बड़े चाव से सुनते क्योंकि गांव वाले कम पढ़े लिखे लोग थे इसलिए उन पढ़े लिखे सज्जन की बात उन्हें अच्छी लगती, उसी गांव में एक चाचा थे उन्हें ये व्यक्ति नागवार गुजरता... उन्हें लगता कि हमारा अनुभव कुछ और कहता है और ये सारी उल्टी बातें करता है। एक दिन तो हद हो गई जब उन सज्जन ने कहा कि ‘ मैं भगवान राम को कभी माफ नहीं कर सकता... भगवान राम ने जो माता सीता के साथ किया, लव-कुश के साथ किया उसके लिये मैं उन्हें कभी माफ नहीं कर सकता’ साथ ही वो मर्यादा पुरुषोत्तम को भला-बुरा कहने लगा. जो उसकी बातें सुन रहे थे अचंभे में पड़ गए कि भाई इस सज्जन ने क्या कह डाला, इसे क्या हो गया ... तभी चाचा बीच में से उठे और बोले – बेटा जब भगवान राम तुमसे माफी मांगने आएं तो उन्हें बिल्कुल माफ मत करना, उन्हें खूब जलील करना और कहना कि हे राम तूने क्या किया..फिलहाल दूसरी बातें कर, फिर चाचा बोले... जब राम तुमसे माफी मांगने आएंगे तब तो तुम उन्हें माफी नहीं देगा न...। वो तो तुमसे माफी मांग ही नहीं रहे और तू है कि इस जिद पर अड़ा है कि तू कभी उन्हें माफ नहीं करेगा। अचानक बैठक का माहौल बदल गया... और सबको पता चल गया कि इस व्यक्ति की कितनी गहरी पैठ है।
मैं ये किस्सा आप लोगों को इसलिये नहीं सुनाना चाह रहा था कि मैं किसी की तुलना भगवान राम से कर रहा हूं या फिर किसी के बचाव की मेरी कोई मंशा है बल्कि मैं सिर्फ ये कहना चाहता हूं कि मित्रों किसी के बारे में भी लिखने से पहले अपने गिरेबान में झांको, उसके किये की तुलना अपने कर्मों से करो औऱ सोचो कि उस शख्स ने जो हासिल किया है क्या वो यूं ही था... तो फिर आपको वो सब क्यों नहीं मिल रहा। जी हां मैं बात आदरणीय प्रभाष जी की ही कर रहा हूं, कुछ ब्लागिए भाई लोग उनके पीछे नहा धोकर पड़ गए हैं। दरअसल सच ये है कि ये लोग उनके जरिए अपनी प्रसिद्धि चाहते हैं, इन भाई लोगों को मीडिया समाज के भी लोग ठीक से नहीं जानते (उनके इतिहास पर मैं कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता नहीं तो मैं पथ-भ्रमित हो जाउंगा ) लेकिन ये लोग हैं कि किसी बड़े नाम का सहारा लेकर दिन-रात मशहूर होने की जुगत में लगे हैं और जब कोई उनका इष्ट-मित्र उनसे ऐसी हरकतें नहीं करने को कहता है तो उनका जवाब होता है अरे यार आज तो इस खबर पर 2 हज़ार हिट्स मिले हैं इसे कैसे रहने दूं । आखिर फार्मूला जो है --- हिट है तो फिट है.... लेकिन दोस्तों ये हिट-फिट का फार्मूला पत्रकारिता में ज्यादा दिनों तक नहीं चलता। मैं पूछता हूं इन ब्लागियों से कि ईमान से बोलना कि जब पत्रकारिता में आने की सोची और अपने छोटे शहर में कुछ लिखने पढ़ने लगे तो नहीं सोचते थे आखिर ये पत्रकार कैसा जीवट है जिसे प्रधानमंत्रियों का भी डर नहीं रहा, मालिकों की मनमानी नहीं सुनी, मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि जरुर सोचते होगे इस इंसान की जीवटता के बारे में ।
प्रभाष जी ने जो लिखा उसपर मतभेद हो सकता है, आप भी जाहिर कीजिए... हमारे मित्र दिलीप मंडल ने भी जाहिर किया लेकिन बड़ी सधी हुई भाषा में.... मतभेद होना चाहिए लेकिन मनभेद तो मत पालिए, और उपर से आलम ये कि एक एक लेख पर पंद्रह – पंद्रह कमेंट्स और वो भी बेनामी.... ये कैसी पत्रकारिता है यहां आपलोगों की कुंठाएं सामने आती हैं अगर प्रभाष जी का आलोक जी का ये फिर किसी भी जी का विरोध करना है तो अपने नाम के साथ कीजिए... लेकिन आप करेंगे कैसे क्योंकि आप कर ही नहीं सकते लिजलिजे हैं आप। आप को तो सिर्फ विवाद चाहिए क्योंकि उस विवाद से हिट्स मिलते हैं आपको - और फिर आप सभी के लिए एकमात्र लक्ष्य है मीडिया की सबसे बड़ी वेबसाइट भड़ास4मीडिया को मात देना। कम से कम उस रास्ते पर तो चलो जिस रास्ते पर वो चल रहा है। खबर देता है, मुद्दों पर बहस करता है और वहां बहस करने वाला बेनामी नहीं होता क्यों कि जो बेनामी है वहीं बेमानी है। जो लोग इन मुद्दों पर लगातार बहस किये जा रहे हैं वो अपने अतीत को भूल गये हैं। और जो लोग उस पर कमेंट्स कर रहे हैं दरअसल वो किसी दफ्तर में बैठकर आफिस टाइम में ब्लागिंग कर रहे हैं...काम नहीं आने की वजह से या फिर काम नहीं कर पाने की वजह से गालियां सुनने वाले दफ्तर के किसी कोने में बैठकर उस मालिक का पैसे जाया कर रहे हैं जो उन्हें वो काम करने के लिये देता है। कमेंट्स करने के लिये अगर इन्हें साइबर कैफे में पैसे देने पड़े तो ये कमेंट्स भी नहीं लिखे और मैं ये इसलिये दावे के साथ कह सकता हूं क्योंकि अक्सर मेरे पास दूसरे चैनलों से फोन आता था कि – सर आपके दफ्तर से फलां फलां व्यक्ति मेरे साथ पिछले कई घंटों से चैटिंग पर है तो प्लीज कोई जिम्मेदारी का काम इन्हें मत दीजिएगा नहीं तो निराशा होगी। दरअसल यही हकीकत है इनकी। ये नेट का इस्तेमाल तरक्की के लिए नहीं विनाश के लिये कर रहे हैं। और हां अपने सुधी पाठकों को बताता चलूं कि ये जो ब्लॉगिए हैं फिलहाल बेरोजगार हैं...दिल्ली के कई अखबारों में उठापटक चल रही है .. इन्होंने भी अपनी जोर आजमाइश शुरू कर दी है ... जल्द ही नौकरी करने लगेंगे और फिर आपको ये दिलचस्प मगर बेमतलब बहस पढ़ने को नहीं मिलेगी। अगर आपको यकीं नहीं आता तो एक-एक लाख की नौकरी का ऑफर देकर देखिए इन्हें।

Saturday, August 29, 2009

रोको मत अपनी कलम अमन के गीत लिखो

समिधा सुलगी, श्रृंगार सुलगने वाला है,
रोको मत अपनी कलम अमन के गीत लिखो।

नभ की गंगा का पानी कुछ गंदला सा है
मौसम पहले से कुछ बदला-बदला सा है
बदरी सी चारों ओर क्षितिज पर छायी है
मानो धरती की आग उभरकर आयी है
लिखते आए सदियों से गीत समर्पण के
इस कोलाहल में नवजीवन के गीत लिखो

समिधा सुलगी, श्रृंगार सुलगने वाला है,
रोको मत अपनी कलम अमन के गीत लिखो।

छिटका दो चिनगारी सागर के पानी पर
झलरा दो मोती किस्मत की पेशानी पर
पेशानी पर लिख दो इतिहास जमाने का
कुछ असर जिंदगी पर हो नए तराने का
दुनियावालों को नए तराने गाने दो
तुम नए छंद में नए सृजन के गीत लिखो

समिधा सुलगी, श्रृंगार सुलगने वाला है,
रोको मत अपनी कलम अमन के गीत लिखो।

अंगड़ाई लेने को दुनिया अकुलाती है
उपर देखो धरती की आह धुंआती है
इसे मजलूमों की आह न समझो, आंधी है
इस आंधी के पीछे लेनिन है, गांधी है
कुछ नए सितारे आसमान पर चमकेंगे
इस उथल-पुथल में परिवर्तन के गीत लिखो

समिधा सुलगी, श्रृंगार सुलगने वाला है,
रोको मत अपनी कलम अमन के गीत लिखो।

Tuesday, August 25, 2009

मेरे जीवन के साथ बड़ी मजबूरी है ....

मेरे जीवन के साथ बड़ी मजबूरी है,
मैं वीरानों में गीत सुमन के लिखता हूं।

मैं लिखता हूं इसलिए कि मधुबन शरमाए,
मैं लिखता हूं इसलिए कि जीवन दुहराए,
लिखता जाता उत्थान पतन जग-जीवन का
मुझको न तनिक परवाह पपीहा अकुलाए।
धरती के पन्नों पर आंसू की स्याही से-
मैं सुनसानों में गीत नयन के लिखता हूं

मेरे जीवन के साथ बड़ी मजबूरी है,
मैं वीरानों में गीत सुमन के लिखता हूं।

मेरे गीतों का प्राण सुबह का तारा है
गंगा का पानी है झेलम की धारा है
ज्वारों से लिखता गीत समय के धारों पर
गीतों से अम्बर को दिन-रात पुकारा है
गीली मिट्टी से बने दीप की पांती से
मैं बलिदानों में गीत नमन के लिखता हूं

मेरे जीवन के साथ बड़ी मजबूरी है,
मैं वीरानों में गीत सुमन के लिखता हूं।

मेरे गीतों की कड़ी जवानी बन जाए
चिंतन की कोमल घड़ी कहानी बन जाए
हर शब्द-शब्द के साथ कल्पना भी उतरे
हर चरण-चरण जीवन का दानी बन जाए।
चरणों की आकुल-आहट से युग के पथ पर
मैं अभियानों में गीत गमन के लिखता हूं,

मेरे जीवन के साथ बड़ी मजबूरी है,
मैं वीरानों में गीत सुमन के लिखता हूं।

Monday, August 17, 2009

ये सब पब्लिसिटी स्टंट है

15 अगस्त को जब देश आजादी की 63वीं सालगिरह मना रहा था तब अचानक शाहरुख पुराण ने एक साथ पूरे देश की जनता को झकझोर दिया मानो कोई सुनामी आया हो... सारे न्यूज चैनलों पर बड़े-बड़े अक्षरों में ब्रेकिंग न्यूज- शाहरुख के साथ बदसलूकी, किंग खान के साथ अमेरिका में दुर्व्यवहार और न जाने क्या क्या। और हो भी क्यूं न शाहरुख ठहरे देश के सुपर स्टार, नौजवानो के आदर्श। न्यूज चैनलों ने इस खबर को ऐसे परोसा कि जैसे अमेरिका ने अभी माफी नहीं मांगी तो भारत सीधे पेंटागन पर हमला कर देगा और मनमोहन सिंह व्हाइट हाउस को कब्जाने खुद कूच कर जाएंगे। मैं खुद खबरों से खेलने का गवाह हूं इसलिये अच्छी तरह जानता हूं कैसे न्यूज रुम में अफरा-तफरी मची होगी... कौन कैसे चिल्लाया होगा और देखते देखते मनमोहन सिंह के लाल किले के प्राचीर से दिए गए भाषण पर चर्चा करने की बजाए सब शाहरुखमय हो गये होंगे। मैं ब्रेक पर हूं लेकिन चूंकि इन्हीं न्यूज चैनलों का हिस्सा हूं इसलिये आपको बड़ी शिद्दत से बता सकता हूं कि ये खबर जैसे ही न्यूज रूम में टपकी होगी सबकी बांछे खिल गई होंगी क्योंकि उससे पहले सब इसी बात को तरस रहे होंगे कि आखिर आज पंद्रह अगस्त है आजादी की 63वीं सालगिरह.. आज दिखाएं क्या ... दिन भर चलाएँ क्या... प्राइम टाइम में परोसें क्या...आदि-आदि। शाहरुख ने खबरों के लिहाज से शिथिल 15 अगस्त को जान डाल दी। सब तरफ तेरा जलवा ....। शाहरुख के इस कदम को जरा गौर से देखिये .. वो जिस कार्यक्रम में भाग लेने अमेरिका गये थे वहां एक दिन पहले भी जा सकते थे या यूं कहें कि कुछ घंटे पहले भी जाते तो ये बात हिंदुस्तान में 14 की रात को ही हो जाती लेकिन शाहरुख तो शाहरुख ठहरे उन्हें अपने देश की जनता और मीडिया पर पूरा भरोसा है उन्होंने ऐसा दिन चुना जब सारा देश छुट्टियां मना रहा हो और न्यूज चैनलों पर आजादी के परवानों के किस्सों के अलावा परोसने को कुछ न हो। और ठीक ऐसा ही हुआ अचानक एक खबर फ्लैश हुई और देखते देखते ....। शाहरुख कमाल के मैनेजमेंट गुरु हैं... एक तो उन्होंने तारीख चुनी आजादी की सालगिरह जिस दिन देश के निठल्लों में देशभक्ति की भावना हिलोंरे मारने लगती है। और फिर जिस फ्लाइट से वो गये उसमें अपना सामान भी नहीं ले गये (जैसा कि अमेरिकी इमिग्रेशन अधिकारी का कहना है) उनका सामान दूसरी फ्लाइट से आ रहा था लिहाजा उनको जांच के लिये तो रुकना ही था। हकीकत में शाहरुख के साथ क्या हुआ या फिर शाहरुख ने अपने साथ क्या क्या होने दिया ये तो सिर्फ वही बता सकते हैं लेकिन उन्होंने जिस तरह अपनी नई आनेवाली फिल्म “माई नेम इज खान” को प्रमोट किया वो वाकई काबिलेतारीफ है। नेवार्क एयरपोर्ट से जब उन्होंने अपने घर, अपने सेक्रेटरी को फोन किया तो साथ ही अपने कांग्रेसी सांसद मित्र राजीव शुक्ला को फोन करना नहीं भूले, हालांकि राजीव शुक्ला ने उनकी मदद की, एंबेसी में बात की लेकिन अगर गौर से देखें तो शुकला जी को फोन करना भी एक स्ट्रेटजी के तहत था क्योंकि शाहरुख ये बखूबी जानते हैं कि उनपर जो आंच आई है उसे भारतीय न्यूज चैनल खूब भुनाएंगे तो क्यों न खबर ब्रेक करने का सेहरा उनके मित्र के चैनल को मिले जिसके बारे में कहा जाता है कि उसमें शाहरुख ने भी पैसे लगाए हैं। इतना ही नहीं जब ये खबर दावानल की तरह न्यूज चैनलों में फैली तो हर कोई शाहरुख से बात करने की जुगत में लग गया.... लगभग हर चैनल से शाहरुख ने फोन पर बातचीत की और बातचीत में बार बार बोला माइ नेम इज खान , शाहरुख चाहते तो माइ नेम इज शाहरुख खान भी बोल सकते थे। लेकिन उन्होंने यहां भी बड़ी बारीकी से अपने फिल्म को प्रमोट कर दिया। दरअसल ऐसे ही हैं शाहरुख, आज जिस नस्लवाद का सताया हुआ खुद को बताते हुए नहीं अघा रहे वही शाहरुख पिछले महीने मुंबई में इमरान हाशमी को एक सोसाइटी द्वारा घर न दिये जाने के मामले पर इमरान को नसीहत दे रहे थे। अंग्रेजी-हिंदी में खुद इतना फर्क करते हैं कि न कभी मंच पर हिंदी बोलते सुने जाते हैं और न ही जल्दी किसी हिंदी न्यूज चैनल पर इंटरव्यू देते हैं लेकिन ये हिंदी न्यूज चैनल वाले हैं कि शाहरुख को देखा नहीं कि लार टपकाते-दुम हिलाते नजर आते हैं। ये तो थी बात शाहरुख की अब जरा फिल्म इंडस्ट्री और मीडिया को गौर से देखिए। अभी कुछ दिनों पहले ही इससे भयानक हादसा पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के साथ हुआ। खबर चलाई गई, ब्रेकिंग भी चली, संसद में हंगामा भी हुआ, मंत्री प्रफुल्ल पटेल ने एफआईआर दर्ज कराने की बात भी कही लेकिन हुआ क्या । न तो इस घटना के विरोध में बॉलीवुड से कोई मुखर आवाज सामने आई। रसोई से लेकर नासा तक हर मु्द्दे पर अपनी बेबाक राय रखने वाले महेश भट्ट ने भी चुप्पी साध ली। शाहरुख की खबर में लटके-झटके थे , शाहरुख की खबर के साथ दीपिका और प्रियंका चोपड़ा के फोनो चलाए जा सकते थे और ये सारे खेल कलाम की खबर के साथ नहीं हो सकता था लिहाजा वो खबर ठीक से खबर नहीं बन सकी। न्यूज चैनलों के लिए शायद कलाम उतने बड़े मुसलमान नहीं है जैसे शाहरुख हैं क्योंकि शाहरुख बार बार कहते हैं माई नेम इज खान। नेताओं के लिये कलाम के दिल में उतना दर्द नहीं है जितना शाहरुख के लिये है क्योंकि उनके बच्चे कलाम के नहीं शाहरुख ऑटोग्राफ चाहते हैं। कलाकारों की इज्जत होनी चाहिए लेकिन नई पीढ़ी के लिए आदर्श क्या हो इस पर हमें गंभीरता से सोचना होगा, और कलाम ने किस तरह अपनी प्रतिक्रिया दी थी इसका जिक्र इसलिये नहीं करुंगा क्योंकि वो फिर कलाम और शाहरुख की तुलना हो जाएगी और ये गुस्ताखी किसी हिंदुस्तानी को नहीं करनी चाहिए। बाकी ब्रेक के बाद ।

Tuesday, August 4, 2009

रात को ओढ़ लूँ...
रात में खो चलूँ
रौशनी उतार कर
आज खुद से मिलूँ
प्रज्वलित हो चलूँ
आज खुद ही जलूँ
सूर्य बन कर उगूँ
आभा बन कर जगूँ
भस्म गर हो गई
बीज बन कर जियुँ
अंकुरित हो सकूँ
जिन्दगी बन सकूँ
स्वर के लय पर
शब्द के आशय में...
स्नेह के अहसास में….
सोच के पँख पर….
एक तरंग बन सकूँ
एक सदिश की तरह
चल सकूँ...
छू सकूँ
आज मैं...
काश मैं...
मैं बन सकूँ