Wednesday, March 23, 2016

ये ट्वीट बहुत कुछ कहता है

Published on 14th March 2016 in Inext
क्या माना जाए लोकतंत्र के स्तंभ धीरे धीरे खोखले होते जा रहे हैं या फिर कुछ उम्मीद बाकी है। खासकर जब हम बात लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की करते हैं तो चिंता बढ़ने लगती है। पत्रकारिता का दिनोंदिन ह्रास हुआ है इसमें कोई शक नहीं है लेकिन जब बैंको के हजारों करोड़ का कर्ज लेकर फरार कोई शख्स मीडिया को धमकाए और बोले कि खामोश ..पोल खोल दूंगा तो चिंता और बढ़ जाती है। आज के दौर में जब हम मीडिया की बात करते हैं तो उसमें प्रिंट मीडिया हाशिए पर नजर आता है। सोशल मीडिया परिपक्वता से अभी काफी दूर है और टेलीविजन को तो जैसे शैशवकाल में ही पीलिया हो गया। पिछले कुछ समय का गौर करें तो टेलीविजन न्यूज ने क्या कमाल किया है देश में दिख रहा है। देश में आंदोलन की बयार से लेकर दिल्ली के वर्तमान मुख्यमंत्री तक मीडिया की देन हैं खासकर टेलीविजन मीिडया की। आजकल ही देखिए तीन खबरें पिछले तीस दिन से ज्याादा समय से स्क्रीन पर तैर रही हैं, और सारी एक निश्चित एजेंडे के साथ । चाहे वो कन्हैया हो, श्री श्री रविशंकर का संगीतनाद हो या फिर विजय माल्या। इन खबरों के अलावा टेलीविजन पर कुछ नहीं दिखता । और अब तो एक दूसरे चैनल वाले खुलेआम आपसी रिश्तेदारी - दुश्मनी भी निपटाने में जुटे हैँ। बात दिखती छोटी जरुर है लेकिन बहुत गंभीर है। हमें तो लगता है िक लोकतंत्र के किसी भी समस्या से ज्यादा गंभीर , अति गंभीर। शायद जीडीपी के गिरते स्तर से भी ज्यादा गंभीर है देश में मीडिया का गिरता स्तर। जल्दी, सबसे पहले, सबसे आगे और सबसे खनकदार दिखाने की होड़ में खबरों और देश दोनों से समझौता हो रहा है। गौर से देखिए कन्हैया मामले पर वीडियो पर विवाद जारी है, हालांकि किसी भी वीडियो को फर्जी कहकर मुद्दों को भटकाना भी एक फैशन बन गया है। लेकिन फिर भी कन्हैया और जेएनयू प्रकरण में जितना बड़ा गुनहगार वो वकील समुदाय है जिसने पटियाला हाउस कोर्ट में मारपीट की उससे बड़ा गुनहगार है वो मीडिया समुदाय है जिसने चौबीसों घंटे स्क्रीन पर रंग-बिरंगे थोबड़ों से यह बहस करवाई और बार-बार कहलवाया कि अफजल की फांसी पर बहस होनी चाहिए । उनलोगों को स्क्रीन स्पेस दिया जिनकी नजर में आजाद कश्मीर की मांग करना, देश के टुकड़े करने की बात करना गुनाह नहीं है। ठीक उसी तरह श्री श्री रविशंकर का कार्यक्रम एक साल से भी ज्यादा पहले तय होचुका था। कार्यक्रम के जब चंद दिन रह गए तब जाकर मीडिया और पर्यावरणवादी सक्रिय हुए। मीडिया ने तूल दिया और एनजीटी की नींद खुल गई। दरअसल यह सब मामले की गंभीरता जाने बगैर अनपढ़ों की तरह व्यवहार करने का नतीजा है । एक दौर था जब प्रिंट मीडिया के पत्रकार टेलीविजन न्यूज के पत्रकारों को कम पढ़ा-लिखा मानते थे लेकिन अब जबकि प्रिंट मीडिया के कई नामचीन लोग भी टेलीविजन स्क्रीन की शोभा बढ़ाते हैं, टेलीविजन न्यूज का दिनोंदिन गिरता स्तर जरुर चिंता बढ़ाता है। अब ताजा तरीन मामले पर नजर डालिए। विजय माल्या , नाम, पहचान ,शोहरत और पैसे का मोहताज नहीं। हर तरफ विजय माल्या की चर्चा है। लेकिन विजय माल्या जब तकरीबन पांच साल से बैंकों के करीब 9 हजार रुपये पचा कर ऐश कर रहा था, कुछ को छोड़ कर मीडियाको कहीं कुछ पता नहीं था। जितनी हाय तौबा मीडिया ने अब मचाई है उतनी अगर किंगफिशर एयरलाइंस के दिवालिया होने के वक्त मचाई होती तो शायद अब तक उसके कर्मचारी अपनी तनख्वाह का इंतजार नहीं कर रहे होते । कमाल तो देखिए देश छोड़ कर बाहर जाने से एक रोज पहले तक वो संसद में देखागया और हो भी क्यूं नहीं, माननीय सांसद जो ठहरे।  जब माल्या लंदन भाग गया तब अब मीडिया और विपक्ष हंगामा मचा रहे हैं। मामला यहीं तक नहीं हैबल्कि स्तर गिरने का मामला तो अब शुरु होता है। माल्या के देश से बाहर होने की खबर फैलते ही आदतन टीवी मीडिया उसपर टूट पड़ता है। उसके सारे कच्चे चिट्ठे खंगाले जाने लगते हैं और इसी बीच जनाब माल्या का लंदन से एक ट्वीट आता है जो हाल के भारतीय मीडिया में से ज्यादातर का चेहरा बेनकाब करता है। देश के बैंको का नौ हजार करोड़ दबाकर फरार इंसान यह कहता है कि मीडिया वालों जरा होश से काम लो , तुम में से किन किन को हमने क्या - क्या सुविधाएं  मुहैया नहीं कराईं, कितना ऐश कराया सब डाक्यूमेंटेड हैं इसलिए जरा संभल कर। हालांकि कुछ पत्रकारों ने इसके विरोध में तुरंत सोशल मीडिया का सहारा लिया लेकिन किसी ने इस विरोध में अपने भोंपू टेलीविजन का इस्तेमाल अब तक नहीं किया। जिस तरीके से ट्वीट में माल्या ने टीआरपी का जिक्र किया है उसका इशारा साफ तौर पर टेलीविजन की तरफ है , हां यह चर्चा जरुर सुनी जा रही है कि खिलाया तो खाया , खबर से परहेज क्यूं करें। सवाल एक माल्या , एक कन्हैया या एक रविशंकर का नहीं है, सवाल एक अन्ना का और एक अरविंद केजरीवाल का भी नहीं है। सवाल देश का है, देश की सोच का है। एक रिपोर्टके मुताबिक इस समय बैंकों के करीब चार लाख करोड़ रुपये डूबे हुए हैं। माल्या ने जितना पचाया है वो कुल हिस्से का 5 फीसदी भी नहीं है। माल्या लंदन भागगया। जो कारोबारी 95 फीसदी पैसा डकार कर अभी देश में बैठा है क्या मीडिया उसके लंदन भागने का इंतजार कर रही है । विपक्ष और सरकार तो शायद कर ही रहे हैं। और तो और अब इन मीडिया मुगलों के बीच सरेआम तू-तू मैं-मैं भी होने लगी है, हालात ये हो गए हैं कि देश का कोई भी व्यक्ति टीवी चैनलों को देखकर साफ तौर पर यह अनुमान लगा सकता है कि फलां चैनल अमुक पार्टी का पक्षधर है। कॉरपोरेट घरानों की आपसी लड़ाई हो या  फिर सरकारी महकमे केनौकरशाहों के बीच की लड़ाई। जब भी ऐसा होता है तो भीतर की असलियत बाहर आती है। सूरत साफ होने लगती है। कई धमाकेदार खुलासे भी होते हैं जिनसे देश को लाभ भी मिलता है। मीडिया में प्राय: ऐसा नहीं था। एक मीडिया घराना, दूसरे मीडिया घराने के खिलाफ कुछ भी लिखने और दिखाने से बचताथा लेकिन इन दिनों मीडिया में एक नया ट्रेंड देखने को मिल रहा है। एक चैनल दूसरे चैनल की सार्वजनिक खिंचाई में जुट गया है। एक बड़ा पत्रकार दूसरे बड़ेपत्रकार की खुलेआम खिंचाई कर रहा है। इतना ही नहीं शायद पहली बार इस मामले को सीधे दर्शकों के बीच उछाला जा रहा है डिबेट में, सेमिनार में औरअपने-अपने टीवी स्क्रीन पर यह दिखाने की कोशिश हो रही है मेरी कमीज से तुम्हारी कमीज सफेद कैसे। दरअसल यही सोच खतरनाक है। अफजल गुरु से भी ज्यादा, उमर खालिद से भी ज्यादा और माल्या से भी ज्यादा। यह सोच बतलाती है कि मीडिया के ये दिग्गज अपने आप को बड़ा पत्रकार ही नहीं बल्कि पत्रकारिता से बड़ा मान बैठे हैं। सरकार और विपक्ष की नूरा-कुश्ती में मीडिया अपनी भूमिका निभाने के बजाय उनमें से किसी ने किसी का पैरोकार बनता जा रहा है। एक पार्टी जब विजय माल्या की बात करेगी तो दूसरी क्वात्रोची के किस्से शुरु कर देगी। एक ललित मोदी का जिक्र करेगा तो दूसरा एंडरसन को याद करने लगेगा, वो तो देश की राजनैतिक पार्टियां हैं लेकिन जब इसी सुर में टेलीविजन भी गाने लगता है तो चिंता स्वाभाविक हो जाती है। इसलिए अब वक्त आ गया है कि इन मुद्दों पर सार्वजनिक बहस हो, टेलीविजन न्यूज चैनल चलाने के लिए नियम-कायदों और उसके लाभ-हानि पर सरकार के साथ विस्तृत चर्चा हो। मैं तो कहता हूं पक्ष-विपक्ष की पत्रकारिता क्या पत्रकारिता निष्पक्ष भी नहीं होनी चािहए । पत्रकारिता जनपक्ष की होनी चाहिए । महज गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार से सम्मानित होने से देश में पत्रकारों की साख नहीं बचेगी, टीवी स्क्रीन ब्लैक करने से अघोषित आपातकाल नहीं आएगा बल्कि गणेश शंकर विद्यार्थी का छात्र बनना होगा अपने हित किनारे करके पत्रकारिता की साख बचानी होगी नहीं तो देश में अन्ना के आंदोलन होते रहेंगे और उससे अरविंद केजरीवाल सरीखे लोग दिल्ली की सत्ता पर काबिज होते रहेंगे। ललित मोदी और विजय माल्या देश के हजारों करोड़ रुपए लेकर भागते रहेंगे और हम उनके ट्वीट पर बेचैन होते रहेंगे। नीरा राडिया के टेप फिजाओं में गूंजते रहेंगे और उन टेप में शामिल होने वाले अपने को देश का बड़ा पत्रकार साबित करते रहेंगे। गौर कीजिए नीरा राडिया प्रकरण अभी तक देश भूला नहीं है उसपर माल्या का यह ट्वीट भविष्य के लिए अच्छे संकेत नहीं है। 

सुगौली संधि के बहाने

Published on 19th March 2016 in Jansatta
200 साल बाद हम आज एक ऐसी घटना को याद कर रहे हैं जो ऐतिहासिक के साथ-साथ सांस्कृतिक भी है। ऐतिहासिक रणभूमि पर घटी यह एक ऐसी घटना है जिसके जरिए हम युद्ध नहीं वरन् संधि की बात कर रहे हैं। जी हां सुगौली संधि। पिछले सालों में भारत और नेपाल के बीच हुई सुगौली की इस संधि की चर्चा तो बार बार हुई है लेकिन जिस स्तरपर होनी चाहिए वो नहीं हुई। जैसा कि हम जानते हैं और हमने पढ़ा है, देखा है कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास की चर्चा में ज्यादातर इतिहासकार १७९५ के बाद एक लंबी छलांग लेते हैं और सीधे सिपाही विद्रोह पहुंच जाते हैं। इस बीच में हिंदुस्तान में घटी कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक है सुगौली संधि। यह कहना ठीक नहीं कि इतिहासकारों ने सुगौली के साथ बेईमानी की है कि लेकिन यह कहना गलत न होगा कि ज्यादातर इतिहासकारों ने दो देशों के बीच घटी इस महत्वपूर्ण घटना को नजरअंदाज करके अन्याय किया है। दो देश जिसकी सीमा रेखा सैकड़ों किलोमीटर तक फैली है और जिसके दोनों तरफ एक जैसे लोग बसते हों उनके बारे में विस्तार से लिखने में क्यूं कोताही बरती गई यह समझ से परे है। वो तो इस इलाके की मिट्टी की तासीर है कि यहीं से जन्मे कुछ रचनाकारों ने सुगौली और सुगौली संधि की भूमिका से देश को अवगत कराया है। मुगलों के जाने के दौर से अंग्रेजों के भारत पर शासन के दौरान तमाम ऐसी घटनाएं घटी हैं जो भौगोलिक दृष्टि से देश के सांस्कृतिक स्वरूप से परिचित कराती है। रियासतों के साम्राज्य भारतवर्ष के उत्तर में राणा, नेवार और गोरखाओं का राज था। ये राजा भी भारत के मराठा बाजीराव और महाराणा प्रताप की तरह अपने साम्राज्य का विस्तार और हिंदू संस्कृति का विस्तार करते रहे। पहली बार में गोरखाओं ने ईस्ट इंडिया कंपनी के योद्धाओँ को पटखनी दी लेकिन धुन के पक्के गोरों ने १८१३ से १८१५ तक लगातार लड़ाई कर नेपाल को उनके पुराने इलाके तक सीमित रखा। दो साल चली लड़ाई के बाद १८१५ के दिसंबर में यहीं सुगौली के धनही गांव में संधि हुई, और ४ मार्च को दोनों साम्राज्यों ने इस संधि को स्वीकार कर लिया।
इसी अवसर पर दौ सौ साल बाद भारत-नेपाल के संबंधों को ध्यान में रखते हुए ४-५ मार्च २०१६ को सुगौली संधि समारोह का आयोजन हुआ। इस आयोजन में दोनों देशों के चिंतक, रचनाकार, पत्रकार , इतिहासकार और राजनेता शामिल हुए।   दो दिनों तक यहां भारत-नेपाल के इतिहास और उनके मौजूदा संबंधों पर विस्तार से चर्चा हुई। हालांकि पहले से तय कार्यक्रम और तमाम प्रशासनिक तैयारियों  के बावजूद बिहार के राज्यपाल रामनाथ कोविंद ऐन मौके पर क्यूं नहीं आए यह कौतूहल का विषय है और हमारी जानकारी के हिसाब से चुंकि रामनाथ कोविंद संघ के पुराने कार्यकर्ता हैं और उनका मंच से कुछ भी कहना या फिर उनके मंच से किसी मेहमान के द्वारा कुछ भी कहा जाना सीधे केंद्र सरकार से संबंध रखता लिहाजा दिल्ली के आदेश का पालन करते हुए उन्होंने डिबेट में हिस्सा लेने से परहेज किया। लेकिन परिचर्चा के दौरान दोनों देशों से आए वक्ताओं ने भारत-नेपाल संबंधों पर और उसके इतिहास पर खुल कर बोला। एक तरफ जहां सभी वक्ताओं ने भारत-नेपाल के संबंधों और नेपाल के मौजूदा भौगोलिक स्वरूप के लिए इस संधि को महत्वपूर्ण माना वहीं मौजूदा परिदृश्य में मधेशी आंदोलन और मधेश की मांग के मुद्दे को दोनों देशों के संबंधों के लिए जरुरी तथ्य माना। दरअसल हाल की घटनाओँ पर गौर करें तो भारत और नेपाल की चर्चा के दौरान नेपाल के मौजूदा संकट और मधेशी आंदोलन से अछूता नहीं रहा जा सकता और फिर जब हम चर्चा भारत-नेपाल के बीच हुई संधि की कर रहे हों तो तब तो बिल्कुल नहीं। हाल के कुछ महीनों में नेपाल में संविधान के विरोध में जो आंदोलन हुआ है उसने देश की अर्थव्यवस्था की चूलें हिला दी हैं। बंद एसी कमरे में चाहे जितने लंबे भाषण दिए जाएं लेकिन जब उन इलाकों के लोगों की परेशानियों पर गौर किया जाता है तो लगता है इससे मुंह मोड़ना नाइंसाफी होगी। 
सुगौली संधि स्वरूप जो जगह-जमीन नेपाल को ईस्ट इंडिया कंपनी ने १८१६ में सौंपी उसमें१८५७ के बाद बढ़ोतरी कर दी गई। १८५७ के विद्रोह के वक्त सुगौली में ब्रिटिश छावनी स्थापित हो चुकी थी और इस छावनी से उठी विद्रोह की आग को दबाने में नेपाल के राजा ने ब्रिटिश सरकार का साथ दिया था। हालांकि हो सकता है कि वो उनकी तात्कालिक मजबूरी रही होगी लेकिन ब्रिटिश इंडिया ने ईनाम स्वरूप जो तराई का इलाका नेपाल को सौंपा उससे नेपाल को लाभ हुआ और भारत के सीमावर्ती इलाके में लोगों को यह बात आज भी कचोटती है। बड़े भाई का रोल अदा करने के बाद भी उसे वो सम्मान नहीं मिला, यह कहना गलत न होगा कि इसके पीछे भी ब्रिटिश इंडिया की कुछ अलग सोच रही होगी। सुगौली से ज्यादा बेहतर जल जमीन देश के कई हिस्सों में कईयों की होगी लेकिन ऐसा इतिहास कितनों का होगा इसमें संदेह है। वरिष्ठ दिवंगत रचनाकार रमेशचंद्र झा ने तो सुगौली का ऐसा इतिहास लिखा है जिसे बार-बार पढ़ने के बाद भी लगता है कि एक बार फिर पढ़ें क्यूंकि एक-एक कर दृश्य आपके सामने आते हैं। आज इस संधि को हुए दौ सौ साल हो चुके हैं। गंडक में कितना पानी बहा होगा इसकी कल्पना नहीं की जा सकती है लेकिन इस संधि के बारे में सही जानकारी न देकर एक तरफ जहां इतिहासकारों से गलतियां हुई हैं उससे ज्यादा गलतियां यहां के बाद की पीढ़ी ने की जिन्होंने इस संधि का उचित महत्व नहीं जाना और न ही जानने की कोशिश की। यह तथ्य सर्वविदित है कि अगर आप अपनी संस्कृति, अपने धरोहर और अपने इतिहास को जिंदा नहीं रखेंगे तो कोई और उसे तबाह करने में कोई कसर नहीं छोड़ेगा। और इसी का नतीजा है नेपाल और भारत के बीच पूरे तराई इलाके में मधेश मुद्दा सुरसा की मुंह की तरह बड़ा होता जा रहा है।
इस समारोह में शामिल हुए नेपाल के पूर्व सांसद गोपाल ठाकुर ने बड़ी अहम बात उठाई - 2011 की जनगणना के मुताबिक नेपाल में ४८ फीसदी आबादी मधेशियों की है. इसमें नेपाल के मूल और भारत से गए दोनों शामिल है. यहां की बोली मैथिली, भोजपुरी, बज्जिका और नेपाली है. पर दिक्कत ये है कि नेपाल के ५६ लाख लोगों यानि कि मधेशियों को अब तक वहां की नागरिकता नहीं मिल पाई है. जिन्हें नागरिकता मिली भी है, वह किसी काम की नहीं क्योंकि उन्हें न ही सरकारी नौकरी में जगह मिलता है और न ही संपत्ति में, यानी सिर्फ कहने को वे नेपाली नागरिक हैं. भारत के साथ मधेश का एक अलग सम्बन्धियों वाला और पारिवारिक रिश्ता रहा है. मधेशी शुरू से लेकर अब तक एक ही प्रश्न से जूझते आये कि आखिर वे किस राष्ट्र के नागरिक हैं. और समय के साथ साथ मधेशियों के पहचान का ये संकट और गहराता गया. यदि कुछ पूंजीपतियों को छोड़ दिया जाये तो मधेश के लोगों के यह सवाल अब भी बना हुआ है कि वे खुद को किस देश का नागरिक कहें. नेपाल का या भारत का. फ़िलहाल चूंकि ये लोग नेपाल में रहते हैं और बहुत सारे लोगों को नेपाली नागरिकता भी प्राप्त है लेकिन पहले भी अधिकार सीमित थे और नए संविधान में भी अनदेखी की गई है। वहां की सेना में मधेश के लोगों को जगह नहीं मिलती क्यूंकि उनको पिछड़ा और कायर माना जाता है। ऐसे में सीमावर्ती इलाके में होने वाला विरोध भविष्य में भारत के लिए खतरनाक साबित हो सकता है। 
समारोह के प्रमुख वक्ता विभूति नारायण राय ने कहा कि "मधेशी आन्दोलन का सबसे दुखद पहलु ये रहा है कि जब जब उन्होंने अपने नागरिक अधिकारों की बात ही है उन्हें भारत के साथ जोड़ दिया गया है। और भारत को भी बड़े भाई का रोल अदा करना होगा न कि बिग ब्रदर का। " वरिष्ठ परत्रकार अरविंद मोहन ने कहा कि "भारत और नेपाल के बीच रोटी-बेटी का संबंध है। ऐसे में हम उनका साथ देने को तैयार हैं लेकिन उनको अपनी लड़ाई खुद लड़नी होगी क्यूंकि हमारा हस्तक्षेप बाहरी हस्तक्षेप कहलाएगा जो दोनों देशों के संबंधों के लिए ठीक नहीं है" वहीं नेपाल के मौजूदा सासंद हरिचरण साह ने कहा कि "जैसा कि हम सब जानते हैं कि नेपाल में एंटी-इंडियन होने का अर्थ है सच्चा राष्ट्रवादी होना. यह और बात है कि भारत अब भी यह बात नहीं समझ पाया है और वो पहाड़ियों को ही अपने ज्यादा करीब पाता है." मधेशियों पर ये आरोप लगाये जाते रहे हैं कि ये कभी भी भारत विरोधी नहीं रहे इसलिए ये सच्चे नेपाली नहीं हो सकते. अभी भी जब राज्य विभाजन की बातें की गई हैं तो सबसे पहले यही कहा गया है कि अगर मधेश मजबूत हो गया तो भारत नेपाल में अपना अधिकार जमा लेगा। दरअसल यह एक आधारहीन डर है जो नेपाल के ज्यादातर राजनेताओं में बैठा हुआ है।  पर इन तमाम शोषण और दमन के बीच मधेशियों ने अपनी मेहनत से तराई-भूभाग को सबसे बेहतर फर्टाइल लैंड में बदल दिया है. पर जितने भी पहाड़ी शासक रहे चाहे वो राजा महेंद्र हो, राजा ज्ञानेंद्र या श्री 3 राणा सरकार सबने शोषण और दमन के बल पर मधेशियों की ज़मीने जब्त की। एक राजा वीरेंद्र को छोड़ दूसरे किसी शासक ने वहां जनता के दिल में जगह नहीं बनाई। इन तमाम दुविधाओं के बावजूद मधेशी अपना वजूद नेपाल में ही तलाशते हैं, जहाँ से सदियों से रहते आये हैं, अपने अधिकार पाने के लिए संघर्ष करते आये हैं और जिसे दिल से अपना मानते हैं. 
हमें इस तथ्य को स्वीकार करना चाहिए कि कोई भी संधि एकतरफा नहीं होती । जब किसी भी युद्ध का हल नहीं निकलता तो बात संधि पर आकर टिकती है। संधि में दोनों पक्ष बराबर पर होते हैं, अगर कोई पक्ष कमजोर होगा तो दूसरा उसपर काबिज हो जाएगा संधि नहीं करेगा। ऐसे में यह सोचना ही उद्वेलित करता है नेपाल के राजा ने ब्रिटिश इँडिया को क्या जबरदस्त चुनौती दी होगी। ठीक उसी तरह नेपाल के कुछ लोगों का यह मानना कि इस संधि से नेपाल को नुकसान हुआ सरासर गलत है। हमारी नजर में नेपाल को जो सबसे बड़ा लाभ हुआ वो यह कि इस संधि के बाद नेपाल एक संपूर्ण राष्ट्र के तौर पर स्थापित हुआ और बाद के दिनों में नेपाल संप्रभु राष्ट्रों की गिनती में शामिल हुआ। अन्यथा बाद में इतिहास नेपाल को एक रियासत तक सीमित रख जाता।